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सर्वार्थसिद्धि
[संसारी क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस शंका-इसमें मनुष्याय को जोड़ने पर छियासठ सागर तथा अन्तर्मुहुर्त आठ वर्ष कम दो पूर्वकोटि सागर से अधिक काल प्राप्त होता है ? होती है। सागरोपम का लक्षण- दस कोडाकोड़ी उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पल्यों का एक सागर कहा जाता है । उतने कालके स्वर्गों की आयु के अन्तिम सागर में-से मनुष्याय कम पश्चात् संसारी विशेषण छूट जाता है। इसका कर दी जाती है।] खुलासा इस प्रकार है-कोई कर्मभूमिया जीव एक ।
8. 31 पूर्वकोटि की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। वर्षों की
21.2 सख्येया विकल्पा शब्दतः। एक सम्यग्दर्शनगणना के अनुसार सत्तर लाख छप्पन हजार करोड़
मित्यादि सम्यग्दर्शनप्ररूप शब्दानां संख्यातत्वात् । वर्षों का एक पूर्व होता है । इस प्रकार आयु लेकर
असंख्येया अनन्ताश्च भवन्ति तद्विकल्पाः श्रद्धातृश्रद्धाउत्पन्न होनेके पश्चात् गर्भसे आठ वर्ष अनन्तर अन्त
सव्यभेदात् । तत्र श्रद्धातृणां भेदोऽसंख्यातानन्तमानावमुहूर्तमें दर्शनमोहका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि
च्छिन्नतद्वत्तित्वात् । श्रद्धेयस्याप्येतदवच्छिन्नत्वमेव हो गया। तथा तपश्चरण करके सर्वार्थ सिद्धि में
भेदस्तद्विषयत्वात् सम्यग्दर्शनस्य तावद्धा . विकल्पा उत्पन्न हुआ। वहाँसे आकर पुनः एक पूर्वकोटिकी
भवन्तीति। आयु लेकर उत्पन्न हुआ तथा कर्मों का क्षय करके
[शब्द की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के संख्यात भेद हैं, क्यों मोक्ष गया क्योंकि वह इससे अधिक समय तक
कि सम्यग्दर्शन का कथन करनेवाले शब्द संख्यात संसारमें नहीं रह सकता। ऐसा नियम है कि जिस
हैं। श्रद्धा करनेवाले जीवों और श्रद्धा के योग्य भावों भवमें वह दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भक होता
के भेद से सम्यग्दर्शन के असंख्यात और अनन्त भेद है उससे अन्य तीन भवोंको नहीं लाँघता है। कहा
हैं, क्योंकि श्रद्धा करनेवालों की वृत्तियाँ असंख्यात भी है-'जिस भवमें क्षपणाका प्रारम्भक होता है,
और अनन्त प्रमाण होती हैं। श्रदेय के भी असंख्यात दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर नियमसे उससे अन्य
और अनन्त भेद होते हैं और सम्यग्दर्शन का विषय तीन भवोंका अतिक्रमण नहीं करता है।']
श्रद्धेय होता है अतः उसके भी असंख्यात पौर अनन्त 20.7 वेदकस्य षट्षष्टिः। तथाहि सौधर्मशुक्रशतारा
भेद होते हैं।] अवेयकमध्येन्द्रकेषु यथासंख्यं द्वि-षोडशाष्टादशत्रिंशत्सागरोपमाणि । अथवा सौधर्मे द्विरुत्पन्नस्य चत्वारि . 32 सागरोपमाणि, सानत्कुमारब्रह्मलान्तवानदेयकेषु सत्संख्या ...॥8॥ यथाक्रम सप्तदशचतुर्दशकत्रिंशत्सागरोपमाणि। . मनुष्यायुषा सहाधिकानि प्राप्नुवन्तीति नाशंकनीयम्, . अन्त्यसागरोपमायुःशेषेऽवशिष्टातीतमनुष्यायुःकाल - 22.3 अवरोधः स्वीकारः। सदावनुयोगः सदाद्यपरिमाणो तत्त्यागात्।
धिकारः।
[वेदक या क्षायोपशामिक सभ्यक्त्व की उत्कृष्ट स्थिति 8.35 छियासठ सागर है। वह इस प्रकार है-सौधर्मम्वर्ग, 23.1 एकस्यैवानिवृत्तिगुणस्थानस्य सवेदत्वमवेदत्वं शुक्रस्वर्ग, सतारस्वर्ग और उपरिम ग्रैबेयक के मध्यम च कथमिति चेदुच्यते, अनिवृतिः षड्भागीक्रियते। इन्द्र क विमान में क्रम से दो सागर, सोलह सागर, तत्र प्रथमे भागत्रये वेदानामनिवृत्तेः सवेदत्वमन्यत्र अठारह सागर और तीस सागर की स्थिति है (इन तेषां निवृत्तेरवेदत्वम् । सबका जोड़ छियासठ सागर है) अथवा सौधर्मस्वर्ग- शंका-एक ही अनिवृत्तिगुणस्थान में सवेदपना और में दो बार उत्पन्न होनेपर चार सागर होते हैं। अवेदपना कैसे सम्भव है? और सानत्कुमार, ब्रह्मस्वर्ग, लान्तवस्वर्ग और उप. उत्तर--अनिवृत्ति गुणस्थानके छह भाग किये जाते रिमौवेयकमें क्रमसे सात सागर, दस सागर, चौदह हैं उनमेंसे प्रथम तीन भागोंमें वेद रहता है अतः सागर और इकतीस सागरकी स्थिति है (इन सब- सवेदपना है। शेष भागोंमें वेद चला जाता है अतः का जोड़ भी छियासठ सागर होता है)।
अवेदपना है।
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