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274] सर्वार्थसिद्धौ
171178294यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म अब्रह्म इति । किं तत् ? मैनुनम् । तत्र हिसादयो दोषाः पुष्यन्ति.। यस्मान्मथुनसेवनप्रवणः स्थास्नूश्चरिष्णून् प्राणिनो हिनस्ति मृषावादमाचष्टे अदत्तमादत्ते अचेतनमितरं च परिग्रहं गृह्णाति। 6694. अथ पञ्चमस्य परिग्रहस्य कि लक्षणमित्यत आह
मूर्छा परिग्रहः ॥17॥ 8695. मूच्र्छत्युच्यते । का मूर्छा ? बाह्यानां गोमहिषमणिमुक्ताफलादीनां चेतनाचेतनानामाभ्यन्तराणां च रागादीनामुपधीनां संरक्षणार्जनसंस्कारादिलक्षणाव्यावृत्तिर्मुर्छा । ननु च लोके वातादिप्रकोपविशेषस्य मूर्छ ति प्रसिद्धिरस्ति तद्ग्रहणं कस्मान्न भवति ? सत्यमेवमेतत् मच्छिरयं मोहसामान्ये वर्तते । “सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते'' इत्युक्ते विशेष व्यवस्थितः परिगृह्यते; परिग्रहप्रकरणात् । एवमपि बाह्यस्य परिग्रहत्वं न प्राप्नोति; आध्यात्मिकस्य संग्रहात् ? सत्यमेवमेतत् ; प्रधानत्वादभ्यन्तर एव संगृहीतः । असत्यपि बाह्य ममेदमिति संकल्पबान् सपरिग्रह एव भवति । अथ बाहयः परिग्रहो न भवत्येव, भवति च मूच्र्छाकारणत्वात् यदि ममेदमिति संकल्पः परिग्रहः; संज्ञानाद्यपि परिग्रहः प्राप्नोति, तदपि हि ममेदमिति संकल्प्यते रागादिपरिणामवत् ? नैष दोषः; 'प्रमत्तयोगात्' इत्यनुवर्तते । ततो ज्ञानदर्शनचारित्रवतोऽप्रमतस्य जाता है, सब नहीं । अहिंसादिक गुण जिसके पालन करनेपर बढ़ते हैं वह ब्रह्म कहलाता है और जो इससे रहित है वह अब्रह्म है । शंका-अब्रह्म क्या है ? समाधान-मैथुन । मैथुनमें हिंसादिक दोष पुष्ट होते हैं, क्योकि जो मथुनके सेवनम दक्ष है वह चर और अचर सब प्रकार के प्राणियोकी हिंसा करता है, झूठ बोलता है, बिना दो हुई वस्तु लेता है तथा चेतन और अचेतन दोनों प्रकारके परिग्रहको स्वीकार करता है।
8694. अब पाँचवाँ जो परिग्रह है उसका क्या लक्षण है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मूच्र्छा परिग्रह है ॥17॥
8695. अब मूर्छाका स्वरूप कहते हैं । शंका–मूर्छा क्या है ? समाधान गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन अचेतन बाह्य उपधिका तथा रागादिरूप अभ्यन्तर उपधिका संरक्षण अर्जन और संस्कार आदिरूप व्यापार ही मूर्छा है। शंका-लोकमें वातादि प्रकोपविशेषका नाम मूर्छा है ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूर्छाका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता ? समाधान—यह कहना सत्य है तथापि मूर्च्छ धातुका सामान्य अर्थ मोह है और सामान्य शब्द तद्गत विशेषोंमें ही रहते हैं ऐसा मान लेने पर यहाँ मूर्छाका विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रहका प्रकरण है । शंका--मूर्छाका यह अर्थ लेने पर भी बाह्य वस्तुको परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता, क्योंकि मूर्छा इस शब्दसे आभ्यन्तर परिग्रहका संग्रह होता है । समाधान--यह कहना सही है; क्योंकि प्रधान होने से आभ्यन्तरका ही संग्रह किया है । यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रहके न रहने पर भी 'यह मेरा है' ऐसा संकल्पवाला पुरुष परिग्रहसहित ही होता है। शंका-यदि बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं ही है और यदि मूर्छाका कारण होनेसे 'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं, क्योंकि रागादि परिणामोंके समान ज्ञानादिक में भी 'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प होता है ? समाधान-यह 1. अब्रह्म । किं मु.। 2 सचेतनमितरच्च मु.। 3. --च्यते । केयं मूर्छा मु. आ., दि. 1, दि. 2 । 4. --मुक्तादी --मु., ता.। 5. -- तनानां च रागा-- मु.। 6. --गृह्यते । एवमपि ता., ना.। 7. संगृह्यते । असत्यपि मु.। 8. --ग्रहो भवति मु.। 9. --तते । ज्ञान-- आ., दि. 1, दि. 2।
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