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328] सर्वार्थसिद्धौ
[917 8808स्मरतः कर्मनिर्जरायै प्रवृत्तिर्भवति ।
8808. लोकसंस्थानादिविधियाख्यातः समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोकस्य संस्थानादिविधियाख्यातः । तत्स्वभावानुचिन्तनं लोकानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्याध्य. वस्यतस्तत्त्वज्ञान विशुद्धिर्भवति।
6809. एकस्मिन्निगोतशरीरे जीवाः सिद्धानामनन्तगुणाः । एवं सर्वलोको निरन्तरं निचितः स्थावरैरतस्तत्र त्रसता वालुकासमुद्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा । तत्र च विकलेन्द्रियाणां भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञतेव कृच्छलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु सत्सु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरासदः । तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुत्पतिर्दग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा । तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नीरोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि । सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थ जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम् । तमेवं कृच्छलभ्यं धर्ममवाप्य विषयसुखे रञ्जनं भस्मार्थचन्दनदहनमिव विफलम् । विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षणः समाधि?रवापः। तस्मिन् संति बोधिलाभः फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य भावयतो बोधि प्राप्य चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसकी कर्मनिर्जराके लिए प्रवृत्ति होती है।
8608. लोक संस्थान आदिकी विधि पहले कह आये हैं । अर्थात् चारों ओरसे अनन्त अलोकाकाशके बहुमध्यदेशमें स्थित लोकके संस्थान आदिकी विधि पहले कह जाये हैं। उसके स्वभावका अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है । इस प्रकार विचार करनेवाले इसके तत्त्वज्ञानकी विशुद्धि होती है।
$ 809. एक निगोदशरीरमें सिद्धोंसे अनन्तगुणे जीव हैं। इस प्रकार स्थावर जीवोंसे सब लोक निरन्तर भरा हुआ है । अतः इस लोकमें त्रस पर्यायका प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुकाके समुद्र में पड़ी हुई वज़सिकताकी कणिकाका प्राप्त होना दुर्लभ होता है। उसमें भी विकलेन्द्रिय जीवोंकी बहुलता होनेके कारण गुणोंमें जिस प्रकार कृतज्ञता गुणका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्यायका प्राप्त होना दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचोंकी बहुलता होती है, इसलिए जिस प्रकार चौपथपर रत्नराशिका प्राप्त होना अति कठिन है उसी प्रकार मनुष्य पर्यायका प्राप्त होना भी अति कठिन है। और मनुष्य पर्यायके मिलनेके बाद उसके च्युत हो जानेपर पुनः उसकी उत्पत्ति होना इतना कठिन है जितना कि जले हुए वृक्षके पुद्गलोंका पुनः उस वृक्ष पर्यायरूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कूल, इन्द्रियसम्पत और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्मकी प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्यजन्मका प्राप्त होना व्यर्थ है । इस प्रकार अतिकठिनतासे प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषयसुखमें रममाण होना भस्मके लिए चन्दनको जलानेके समान निष्फल है। कदाचित् विषयसुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपकी भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधिका प्राप्त होना अति दुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करनेवाले इस जीवके बोधिको प्राप्त कर कभी भी I. तमेव कृ.- आ., दि 1, दि. 2 ।
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