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-9112 8 843] नवमोऽध्यायः
[339 8 842. आह, यदि सूक्ष्मसांपरायादिषु व्यस्ताः परिषहाः अथ समस्ताः ताः क्वेति
'बादरसांपराये सर्वे ॥12॥ 8843. सांपरायः कषायः । बादरः सांपरायो यस्य स बादरसांपराय इति । नेवं गुणस्थानविशेषग्रहणम् । कि तहि ? अर्थनिर्देशः । तेन प्रमत्तादीनां संयतानां ग्रहणम्। तेषु हि अक्षीणकषायदोषत्वात्सर्वे संभवन्ति । कस्मिन् पुनश्चारित्रे सर्वेषां संभवः ? सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसंयमेषु प्रत्येकं सर्वेषां संभवः ।
वेदनीय कर्मका कार्य कुछ शरीरमें पानी तत्त्व और भोजन तत्त्वका अभाव करना नहीं है। वास्तव में इनका अभाव अन्य कारणोंसे होता है। हाँ, इनका अभाव होनेपर इनकी पूर्ति के लिए जो वेदना होती है वह वेदनीय कर्मका काम है। सो जब कि केवली जिन के शरीरको उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती, तब वेदनीयके निमित्तसे तज्जनित वेदना कैसे हो सकती है ? अर्थात नहीं हो सकती । 4. केवली जिन के साताका आस्रव सदाकाल होनेसे उसकी निर्जरा भी सदाकाल होती रहती है, इसलिए जिस कालमें असाताका उदय होता है उस कालमें केवल उसका ही उदय नहीं होता, किन्तु उससे अनन्तगुणी शक्तिवाले साताके साथ वह उदयमें आता है। माना कि उस समय उसका स्वमुखेन उदय है पर वह प्रति समय बँधनेवाले साता कर्मपरमाणुओं की निर्जराके साथ ही होता है, इसलिए असाताका उदय वहाँ क्षुधादिरूप वेदनाका कारण नहीं हो सकता। 5. सूख-दुःखका वेदन वेदनीय कर्मका कार्य होने पर भी वह मोहनीयकी सहायतासे ही होता है। यतः केवली जिन के मोहनीयका अभाव होता है, अत: वहाँ क्षधादिरूप वेदनाओंका सद्भाव मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। इन प्रमाणोंसे निश्चित होता है कि केवली जिन के क्षुधादि ग्यारह परीषह नहीं होते।
6842. कहते हैं-यदि सूक्ष्मसाम्पराय आदि में अलग-अलग परीषह होते हैं तो मिलकर वे कहाँ होते हैं, यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बादरसाम्परायमें सब परीषह सम्भव हैं ॥12॥
8 843. साम्पराय कषायको कहते हैं । जिसके साम्पराय बादर होता है वह बादरसाम्पराय कहलाता है। यह गुणस्थान विशेषका ग्रहण नहीं है । तो क्या है ? सार्थकनिर्देश है। इससे प्रमत्त आदिक संयतोंका ग्रहण होता है। इनमें कषाय और दोषोंके अथवा कषायदोषके क्षीण न होनेसे सब परीषह सम्भव हैं। शंका-तो किस चारित्रमें सब परीषह सम्भव हैं ? समाधानसामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धिसंयम इनमेंसे प्रत्येकमें सब परीषह सम्भव हैं।
विशेषार्थ-बादरसाम्पराय अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थानका दूसरा नाम है। नौंवें गुणस्थान तक स्थूल कषायका सद्भाव होता है, इसलिए अन्तदीपक न्यायसे इस गुणस्थानका
म भी बादरसाम्पराय है। यहाँ 'बादरसाम्पराय' पदसे इस गुणस्थानका ग्रहण न हो, इसीलिए टोकामें इसका निषेध किया है, क्योंकि बादरसाम्परायमें तो बाईस परीषह सम्भव हैं, बादरसाम्पराय नामक नौवें गुणस्थानमें नहीं । कारण कि इस गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयका उदय नहीं होता । दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं। उनमेंसे सम्यक्त्वमोहनीयका उदय सातवें गुणस्थान तक ही सम्भव है, क्योंकि यहीं तक वेदक सम्यक्त्व होता है, इसलिए यहाँ पर बादर1. समस्ताः क्वेति मु.। 2. 'निसेज्जा जायणाकोसो अरई इत्थिनग्गया । सक्कारो दंसणं मोहा बावीसा चेव रागिसु ॥' -पंचसं. द्वा. 4, गा. 23 1 3. अक्षीणाशयत्वात्सर्वे- आ., दि. 1, 2, ता.। 4 --संयमेष्वन्यतमे सर्वे- मु. ता.।
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