Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 465
________________ -91198 857] नवमोऽध्यायः [345 तपसो विधानं कर्तव्यमित्यत्रोच्यते । तद् द्विविधं बाह्यमाभ्यन्तरं च । तत्प्रत्येकं षड्विधम् । तत्र बाहाभेवप्रतिपत्त्यर्थमाह। अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्य तपः ॥19॥ ६856. दृष्टफलानपेक्षं संयमप्रसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमनशनम् । संयमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिसूखसिदध्यर्थमवमौदर्यम । भिक्षाथिनो मुनेरेकागारादिविषयः संकल्पः चिन्तावरोधो वृत्तिपरिसंख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगन्तव्यम् । इन्द्रियदर्पनिग्रहनिद्राविजयस्वाध्यायसुखसिध्या द्यर्थो घृतादिवृष्यरसपरित्यागश्चतुर्थं तपः । शून्यागाराविष विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु संयतस्य शय्यासनमाबाधात्ययब्रह्मचर्यस्वाध्यायध्यानादिप्रसिद्ध्यर्य कर्तव्यमिति पंचमं तपः। आतपस्थानं वृक्षमूलनिवासो निरावरणशयनं बहुविधप्रतिमास्थानमित्येवमाविः कायक्लेशः तत् षष्ठं तपः। तत्किमर्थम् ? देहदुःखतितिक्षासुखानभिष्वङ्गप्रवचनप्रभावनाद्यर्थम् । परिषहस्यास्य च को विशेषः ? यदृच्छयोपनिपतितः परिषहः। स्वयंकृतः कायक्लेशः। बाह्यत्वमस्य कुतः ? बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात्परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् । 8857. आभ्यन्तरतपोभेदप्रदर्शनार्थमाहकहते हैं-वह दो प्रकारका है-बाह्य और आभ्यन्तर । उसमें भी यह प्रत्येक छह प्रकारका है। उनमें से पहले बाह्य तपके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकारका बाह्य तप है॥19॥ 8856. दृष्टफल मन्त्र साधना आदिकी अपेक्षा किये बिना संयमकी सिद्धि, रागका उच्छेद, कर्मोंका विनाश, ध्यान और आगमकी प्राप्तिके लिए अनशन तप किया जाता है। संयमको जागृत रखने, दोषोंके प्रशम करने, सन्तोष और स्वाध्याय आदिकी सुखपूर्वक सिद्धिके लिए अवमौदर्य तप किया जाता है । भिक्षाके इच्छुक मुनिका एक घर आदि विषयक संकल्प अर्थात् चिन्ताका अवरोध करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है । आशाकी निवृत्ति इसका फल जानना चाहिए। इन्द्रियोंके दर्पका निग्रह करनेके लिए, निद्रापर विजय पानेके लिए और सुखपूर्वक स्वाध्यायकी सिद्धिके लिए घृतादि गरिष्ठ रसका त्याग करना चौथा तप है । एकान्त, जन्तुओंकी पीड़ासे रहित शून्य घर आदिमें निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदिकी प्रसिद्धिके लिए संयतको शय्यासन लगाना चाहिए। यह पाँचवाँ तप है । आतापनयोग, वृक्षके मूलमें निवास, निरावरण शयन और नाना प्रकारके प्रतिमास्थान इत्यादि करना कायक्लेश है. यह बात है। यह किसलिए किया जाता है ? यह देह-दुःखको सहन करनेके लिए, सुखविषयक आसक्तिको कम करनेके लिए और प्रवचनकी प्रभावना करनेके लिए किया जाता है। शंका-परीषह और कायक्लेशमें क्या अन्तर है ? समाधान-अपने आप प्राप्त हुआ परीषह और स्वयं किया गया कायक्लेश है, यही इन दोनोंमें अन्तर है । शंका-इस तपको बाह्य क्यों कहते हैं ? समापान-यह बाह्य-द्रव्यके आलम्बनसे होता है और दूसरोंके देखनेमें आता है, इसलिए इसे बाह्य तप कहते हैं। 6857. अब आभ्यन्तर तपके भेदोंको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1.-गरणदोष-आ., दि. 1, दि. 2, ना.। 2. --विषयसंकल्पचित्ताव-- ता., मु.। -विषयः संकल्पचिन्तावदि. 1, दि. 21 3. सिद्धयर्थो मु., दि. 2। 4. --क्लेशः षष्ठं मु. ता.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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