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---1019 8 937] दशमोऽध्यायः
[373 धर्मास्तिकायाभावात् ॥8॥ 6 935. गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः । तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते।
8936. आह, अमी परिनिवृत्ता गतिजात्यादिभेदकारणाभावादतीतभेदव्यवहारा एवेति । अस्ति कथंचिद् भेदोऽपि । कुतः--
क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञाना
वगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥9॥ 8937. क्षेत्रादिभिर्वादशभिरनुयोगः सिद्धाः साध्या विकल्प्या इत्यर्थः, प्रत्युत्पन्नभूतानुग्रहतन्त्रनयद्वयविवक्षावशात् । तद्यथा-क्षेत्रेण तावत्कस्मिन् क्षेत्र सिध्यन्ति ? प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति । भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रति पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः । कालेन कस्मिन्काले सिद्धिः ? प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धचन सिद्धो भवति। भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सपिण्यवसपिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषेणावसपिण्यां सुषमदुःषमाया अन्त्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति । न तु दुःषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति । अन्यदा नैव सिध्यति । संहरणतः सर्वस्मिन्काले उत्सपिण्यामवसपिण्यां च सिध्यति । गत्या कस्यां गतौ सिद्धिः ? सिद्धिगतो मनुष्यगतौ
धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे मुक्त जीव लोकान्तसे और ऊपर नहीं जाता ॥8॥
8 93 5. गतिके उपकारका कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्तके ऊपर नहीं है, इसलिए मुक्त जीवका अलोकमें गमन नहीं होता। और यदि आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेपर भी अलोकमें गमन माना जाता है तो लोकालोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है।
8936. कहते हैं कि निर्वाणको प्राप्त हुए ये जीव गति, जाति आदि भेदके कारणोंका अभाव होनेसे भेद व्यवहारसे रहित ही हैं । फिर भी इनमें कथंचित् भेद भी है क्योंकि
क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहत्व इन द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्य हैं ।।9।
8937. क्षेत्रादिक तेरह अनुयोगोंके द्वारा सिद्ध जीव साध्य हैं अर्थात् विभाग करने योग्य हैं और यह विभाग वर्तमान और भूतका अनुग्रह करनेवाले दो नयोंकी विवक्षासे किया गया है। यथा-क्षेत्रकी अपेक्षा किस क्षेत्रमें सिद्ध होते हैं ? वर्तमानको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा सिद्धि क्षेत्रमें, अपने प्रदेशमें या आकाश-प्रदेशमें सिद्धि होती है। अतीतको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा जन्मकी अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियोंमें और अपहरणकी अपेक्षा मानुष क्षेत्रमें सिद्धि होती है। काल-कालकी अपेक्षा किस कालमें सिद्धि होती है ? वर्तमानग्राही नयकी अपेक्षा एक समयमें सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । अतीतग्राही नयको अपेक्षा जन्मकी अपेक्षा सामान्य रूपमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । विशेष रूपसे अवसर्पिणी कालमें सुषमा-दुःषमाके अन्त भागमे और दुःषमा-सुषमामें उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। दुःषमा उत्पन्न हुआ दुःषमामें सिद्ध नहीं होता । इस कालको छोड़कर अन्यकाल में सिद्ध नहीं होता है । संहरणकी अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयोंमें सिद्ध होता है। गति-गतिकी अपेक्षा किस गतिमें सिद्धि होती है ? सिद्धगतिमें या मनुष्यगतिमें सिद्धि होती है। लिंग-किस लिंगसे 1. --दिभिः त्रयोदश-- ता., ना.। 2. जन्मप्रति पञ्चदशकर्म- मु.।
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