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सर्वार्थसिद्धौ
[1019 § 937बा | लिंगेन केनसिद्धि: ? अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः । द्रव्यतः पुल्लिगेनैव । अथवा, निर्ग्रन्थलिगेन । सग्रन्थलिगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्व नयापेक्षया । तीर्थेन', तीर्थसिद्धिः द्वेधा तीर्थकरेतर विकल्पात् । इतरे द्विविधाः सति तीर्थकरे सिद्धा असति चेति । चारित्रेण केन सिध्यति । अव्यपदेशेनैकचतुःपञ्चविकल्पचारित्रेण वा सिद्धिः । स्वशक्तिपरोपदेशनिमित्तज्ञानभेदात् प्रत्येकबुद्धबोधितविकल्पः । ज्ञानेन केन ? एकेन द्वित्रिचतुभिश्च ज्ञानविशेषः सिद्धि: । आत्मप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद् द्विविधम्, उत्कृष्टजघन्यभेदात् । तत्रोत्कृष्टं पंचधनुःशतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि । जघन्यमर्धचतुर्थारत्नयो देशोनाः । मध्ये विकल्पाः । एकस्मिन्नवगाहे सिध्यति । किमन्तरम् ? सिध्यतां सिद्धानामनन्तरं जघन्येन द्वौ समयो उत्कर्षेणाष्टौ । अन्तरं जघन्येनैकः समयः उत्कर्षेण षण्मासाः । संख्या, जघन्येन एकसमये एकः सिध्यति । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । क्षेत्रादिभेदभिन्नानां परस्परतः संख्याविशेषोऽल्पबहुत्वम् । तद्यथा— प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे सिध्यन्तीति नास्त्यल्पबहुत्वम् । भूतपूर्वनयापेक्षया तु चिन्त्यते, क्षेत्रसिद्धा द्विविधा - जन्मतः संहरणतश्च । तत्राल्पे संहरणसिद्धाः । जन्मसिद्धाः संख्ये यगुणाः । क्षेत्राणां विभागः कर्मभूमिरकर्मभूमिः समुद्रो द्वीप ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति । तत्र स्तोका ऊर्ध्वलोकसिद्धाः । अधोलोकसिद्धाः संख्ये यगुणाः । तिर्यग्लोकसिद्धा: संख्येयगुणाः । सर्वतः स्तोकाः समुद्रसिद्धाः । द्रोपसिद्धा: संख्येयगुणाः । एवं तावदविशेषेण । सर्वतः स्तोका लवणोदसिद्धाः । कालोदसिद्धाः सिद्धि होती है ? अवेद भावसे या तीनों वेदोंसे सिद्धि होती है। यह कथन भावकी अपेक्षा है द्रव्यकी अपेक्षा नहीं । द्रव्यकी अपेक्षा पुलिंगसे ही सिद्धि होती है अथवा निर्ग्रन्थलिंगसे सिद्धि होती है । भूतपूर्वनयकी अपेक्षा सग्रन्थ लिंगसे सिद्धि होती है । तीर्थं - तीर्थसिद्धि दो प्रकारकी है- तीर्थकरसिद्ध और इतरसिद्ध । इतर दो प्रकारके हैं, कितने ही जीव तीर्थंकरके रहते हुए सिद्ध होते हैं और कितने ही जीव तीर्थंकरके अभाव में सिद्ध होते हैं । चारित्र - किस चारित्रसे सिद्धि होती है ? नामरहित चारित्रसे सिद्धि होती है या एक, चार और पाँच प्रकारके चारित्रसे सिद्धि होती है । प्रत्येकबुद्ध-बोधितबुद्ध - अपनी शक्तिरूप निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके भेदसे प्रत्येकबुद्ध होते हैं और परोपदेशरूप निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके भेदसे बोधितबुद्ध होते हैं, इस प्रकार ये दो प्रकारके हैं | ज्ञान- किस ज्ञानसे सिद्धि होती है । एक, दो, तीन और चार प्रकारके ज्ञानविशेषोंसे सिद्धि होती है । अवगाहना - आत्मप्रदेश में व्याप्त करके रहना इसका नाम अवगाहना है। वह दो प्रकारकी है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट अवगाहना पाँच सौ पचीस धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन अरत्नि है । बीचके भेद अनेक हैं। किसी एक अवगाहनामें सिद्धि होती है । अन्तर - क्या अन्तर है ? सिद्धिको प्राप्त होनेवाले सिद्धोंका जघन्य अन्तर का अभाव दो समय है और उत्कृष्ट अन्तर का अभाव आठ समय । जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अंतर छह महीना | संख्या - जघन्यरूपसे एक समय में एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट रूपसे एक समय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं । अल्पबहुत्व - क्षेत्रादि की अपेक्षा भेदोंको प्राप्त जीवोंकी परस्पर संख्याका विशेष प्राप्त करना अल्पबहुत्व है । यथा - वर्तमान नयकी अपेक्षा सिद्धिक्षेत्रमें सिद्ध होनेवाले जीवोंका अल्पबहुत्व नहीं है । भूतपूर्व नयकी अपेक्षा विचार करते हैं - क्षेत्रसिद्ध जीव दो प्रकारके हैं—- जन्मसिद्ध और संहरणसिद्ध । इनमें से संहरणसिद्ध जीव सबसे अल्प हैं । इनसे जन्मसिद्ध जीव संख्यातगुणे हैं । क्षेत्रोंका विभाग इस प्रकार है— कर्मभूमि, अकर्मभूमि, समुद्र, द्वीप, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक । इनमें से ऊर्ध्वलोकसिद्ध सबसे स्तोक हैं । इनसे अधोलोक सिद्ध संख्यातगुणे हैं, इनसे तिर्यग्लोकसिद्ध संख्यातगुणे हैं । समुद्रसिद्ध सबसे स्तोक 1. तीर्थेन केन तीर्थेन सिद्धिः सु । 2. सिद्धानामन्तरं मु.
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