Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 491
________________ ~1016 8 931] दशमोऽध्यायः 1371 ज्ञानदर्शनाविनाभावित्वादनन्तवीर्यादीनामविशेषः, अनन्तसामर्थ्यहीनस्यानन्तावबोधवृत्त्यभावाम्ज्ञानमयस्त्वाच्च सुखस्येति। अनाकारत्वान्मक्तानामभाव इति चेन्न; अतीतानन्तरशरीराकारत्वात् । 8928. स्यान्मतं, यदि शरीरानुविधायी जीवः, तदभावात्स्वाभाविकलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वातावद्विसर्पणं प्राप्नोतीति । नैष दोषः । कुतः ? कारणाभावात् । नामकर्मसंबन्धो हि संहरणविसर्पणकारणम् । तदभावात्पुनः संहरणविसर्पणाभावः । 8929. यदि कारणाभावान्न संहरणं न विसर्पणं तहि गमनकारणाभावादूर्ध्वगमनमपि न प्राप्नोति अधस्तिर्यग्गमनाभाववत्, ततो यत्र मुक्तस्तत्रैवावस्थानं प्राप्नोतीति । अत्रोच्यते---- तदनन्तरमूवं गच्छत्या लोकान्तात् ॥5॥ 8930. तस्यानन्तरम् । कस्य ? सर्वकर्मविप्रमोक्षस्य । आङभिविध्यर्थः । ऊर्ध्व गच्छत्या लोकान्तात् । 8931. अनुपदिष्टहेतुकमिदमूर्ध्वगमनं कथमध्यवसातुं शक्यमित्यत्रोच्यते पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥6॥ समाधान यह कोई दोष नहीं है क्योंकि ज्ञान-दर्शनके अविनाभावी होनेसे अनन्तवीर्य आदिक भी सिद्धोंमें समानरूपसे पाये जाते हैं, क्योंकि अनन्त सामर्थ्य से हीन व्यक्तिके अनन्तज्ञान नहीं हो सकती और सुख ज्ञानमय होता है । शंका-अनाकार होनेसे मुक्त जीवोंका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान नहीं। क्योंकि उनके अतीत अनन्तर शरीरका आकार उपलब्ध होता है। 6928. शंका-यदि जीव शरीरके आकारका अनकरण करता है तो शरीरका अभाव होनेसे उसके स्वाभाविक लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर होनेके कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्त होता है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीवके तत्प्रमाण होनेका कोई कारण नहीं उपलब्ध होता । नामकर्मका सम्बन्ध जीवके संकोच और विस्तारका कारण है, किन्तु उसका अभाव हो जाने से जीवके प्रदेशोंका संकोच और विस्तार नहीं होता। 8929. यदि कारणका अभाव हो जानेसे जीवके प्रदेशोंका संकोच और विस्तार नहीं होता तो गमनके कारणका अभाव हो जानेसे जिस प्रकार यह जीव तिरछा और नीचेकी ओर गमन नहीं करता है उसी प्रकार उसका ऊर्ध्वगमन भी नहीं प्राप्त होता है, इसलिए जिस स्थानपर मुक्त होता है उसी स्थान पर उसका अवस्थान प्राप्त होता है, ऐसी शंकाके होनेपर आगेके सूत्र द्वारा उसका समाधान करते हैं। तवनन्तर मुक्त जीव लोकके अन्त तक ऊपर जाता है ॥5॥ 8930. उसके अनन्तर । शंका--किसके ? समाधान-सब कर्मोंके वियोग होनेके । सूत्रमें 'आङ्' पद अभिविधि अर्थ में आया है । लोकके अन्त तक ऊपर जाता है। 8931. जीव ऊर्ध्वगमन क्यों करता है इसका कोई हेतु नहीं बतलाया, इसलिए इसका निश्चय कैसे होता है, अतः इसी बातका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं पूर्वप्रयोगसे, संगका अभाव होनेसे, बन्धनके टूटनेसे और वैसा गमन करना स्वभाव होनेसे मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है ॥6॥ 1. --मयपर्यायत्वाच्च मु., ता.। 2. अतीतानन्तशरी-- मु.। 3. --कर्मसंसर्गो हि ता. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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