Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 489
________________ ---1012 $ 923] दशमोऽध्यायः [369 सप्तप्रकृतिक्षपः क्रियते । निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानगद्धिनरकगतितिर्यग्गत्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिनरकगतितिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणसंज्ञिकानां षोडशानां कर्मप्रकृतीनामनिवृत्तिबादरसांपरायस्थाने युगपत्क्षयः क्रियते । ततः परं तत्रैव कषायाष्टक नष्टं क्रियते । नपुंसकवेदः स्त्रीवेदश्च क्रमेण तत्रैव क्षयमुपयाति । 'नोकषायषट्कं च सहैकेनैव प्रहारेण विनिपातयति । ततः पुंवेदसंज्वलनकोधमानमायाः क्रमेण तत्रैवात्यन्तिकं ध्वंसमास्कन्दन्ति । लोभसंज्वलनः सूक्ष्मसापरायान्ते यात्यन्तम् । निद्राप्रचले क्षोणकषायवीतरागच्छद्मस्थस्योपान्त्यसमये प्रलयमुपव्रजतः । पंचानां ज्ञातावरणानां चतुर्णा दर्शनावरणानां पंचानामन्तरायाणां च तस्यैवान्त्यसमये प्रक्षयो भवति । अन्यतरवेदनीयदेवगत्यौदारिफवैक्रियिकाहारकतैजसफार्मणशरीपंचबन्धनपंचसंघातसंस्थानषट्कौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीराङ्गोपाङ्गषट् संहननपंचप्रशस्तवर्णपंचाप्रशस्तवर्णगन्धद्वयपंचप्रशस्तरसपञ्चाप्रशस्तरसस्पर्शाष्टकदेवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातोछवासप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तकप्रत्येकशरीरस्थिरास्थिरकाभ रदुःस्वरानावेयायशःकोतिनिर्माणनामनीचैर्गोत्राख्या द्वासप्ततिप्रकृतयोऽयोगकेवलिन उपान्त्यसमये विनाशमुपयान्ति । अन्यतरवेदनीयमनुष्यायुमनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातिमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वोत्रसवादरपर्याप्तकसुभगादेययशःकोतितीर्थकरनामोच्चैर्गोत्रसंज्ञिकानां त्रयोदशानां प्रकृतीनामयोगकेवलिनश्चरमसमये व्युच्छेदो भवति । प्रकृतियोंका क्षय करता है। पुन: निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वोन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नामवाली सोलह कर्मप्रकृतियोंका अनिवृत्तिबादरसाम्पराय गुणस्थानमें एक साथ क्षय करता है । इसके बाद उसी गुणस्थानमें आठ कषायोंका नाश करता है । पुनः वहींपर नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका क्रमसे क्षय करता है। तथा छह नोकषायोंको एक ही प्रहारके द्वारा गिरा देता है । तदनन्तर पुरुषवेद संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान और संज्वलनमायाका वहाँपर क्रमसे अत्यन्त क्षय करता है। तथा लोभसंज्वलन सक्षमसाम्पराय गणस्थानके अन्तमें विनाशको प्राप्त होता है। निद्रा और प्रचला क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थगुणस्थानके उपान्त्य समयमें प्रलयको प्राप्त होते हैं। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय कर्मोका उसी गणस्थानके अन्तिम समय में क्षय होता है। कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तेजसशरीर, कार्मण शरीर, पाँच बन्धन, पांच संघात, छह संस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियिकशरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग, छह संहनन, पाँच प्रशस्त वर्ण, पाँच अप्रशस्त वर्ण, दो गन्ध, पाँच प्रशस्त रस, पाँच अप्रशस्त रस, आठ स्पर्श, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पर घात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र नामवाली बहत्तर प्रकृतियोंका अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समयमें विनाश होता है तथा कोई एक वेदनीय, मनुष्य आयु. मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति, तीर्थकर और उच्चगोत्र नामवाली तेरह प्रकृतियोंका अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें वियोग होता है । विशेषार्थ-कुल उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस हैं। उनमें से चरमशरीरी जीवके नरकायु, तिर्यंचायु और देवायुका सत्त्व होता ही नहीं । आहारकचतुष्क और तीर्थंकरका सत्त्व 1. -वेदश्च तत्रैव मु.। 2. नोकषायाष्टकं च सहै- मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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