________________
-9129 8877] नवमोऽध्यायः
[351 निरोधश्च चिन्तानिरोध इति । एतदुक्तं भवति-ज्ञानमेवापरिस्पन्दाग्निशिखावववभासमानं ध्यानमिति। 8 873. तद्भेदप्रदर्शनार्थमाह
प्रातरौद्रधर्म्यशुक्लानि ॥28॥ ६ 874. ऋतं दुःखम्, अर्दनमतिर्वा, तत्र भवमार्तम् । रुद्रः क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् । धर्मो व्याख्यातः। धर्मादनपेतं धर्म्यम् । शुचिगुणयोगाच्छुक्लम् । तदेतच्चतुर्विषं ध्यानं द्वैविध्यमश्नुते । कुतः ? प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । अप्रशस्तमपुण्यास्रवकारणत्वात् । कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात्प्रशस्तम्। ६ 875. किं पुनस्तदिति चेदुच्यते
परे मोक्षहेतू ॥29॥ 8876. परमुत्तरमन्त्यम् । अन्त्यं शुक्लम् । तत्सामीप्याद्धर्म्यमपि 'परम्' इत्युपचर्यते । 1द्विवचननिर्देशसामर्थ्याद गौणमपि गृह्यते । "परे मोक्षहेतू' इति वचनात्पूर्वे आर्तरौद्रे संसारहेतू इत्युक्तं भवति । कुतः ? तृतीयस्य साध्यस्याभावात् ।
$ 877. तत्रातं चतुविधम् । तत्रादिविकल्पलक्षणनिर्देशार्थमाह-- 'निरोधनं निरोधः' इस प्रकार भावसाधन नहीं है । तो क्या है ? 'निरुध्यत इति निरोधः' जो रोका जाता है, इस प्रकार कर्मसाधन है। चिन्ताका जो निरोध वह चिन्तानिरोध है । आशय यह है कि निश्चल अग्निशिखाके समान निश्चलरूपसे अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है।
8873. अब उसके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैंआर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ये ध्यानके चार भेद हैं ॥28॥
8 874. आर्त शब्द 'ऋत' अथवा 'अति' इनमें से किसी एकसे बना है। इनमें से ऋतका अर्थ दुःख है और अतिकी 'अर्दनं अति:' ऐसी निरुक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। इसमें (ऋतमें या अतिमें) जो होता है वह आर्त है। रुद्रका अर्थ क्र र आशय है। इसका कर्म या इसमें होनेवाला रौद्र है। धर्मका व्याख्यान पहले कर आये हैं । जो धर्मसे युक्त होता है वह धर्म्य है । तथा जिसमें शुचि गुणका सम्बन्ध है वह शुक्ल है। यह चार प्रकारका ध्यान दो भागोंमें विभक्त है, क्योंकि प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे वह दो प्रकारका है। जो पापास्रवका कारण है वह अप्रशस्त है और जो कर्मोके निर्दहन करनेकी सामर्थ्यसे युक्त है वह प्रशस्त है।
8875. तो वह क्या है ऐसा प्रश्न करनेपर आगेका सूत्र कहते हैंउनमें से पर अर्थात् अन्तके दो ध्यान मोक्षके हेतु हैं ॥29॥
8876. पर. उत्तर और अन्त्य इनका एक अर्थ है। अन्तिम शक्लध्यान है और इसका समीपवर्ती होनेसे धर्म्यध्यान भी पर है ऐसा उपचार किया जाता है, क्योंकि सूत्र में 'परे' यह द्विवचन दिया है, इसलिए उसकी सामर्थ्यसे गौणका भी ग्रहण होता है । 'पर अर्थात् धर्म्य और शुक्ल ये मोक्षके हेतु हैं' इस वचनसे पहलेके अर्थात् आर्त और रौद्र ये संसारके हेतु हैं यह तात्पर्य फलित होता है, क्योंकि मोक्ष और संसारके सिवा और कोई तीसरा साध्य नहीं है।
8877. उनमें आर्तध्यान चार प्रकारका है। उनमें से प्रथम भेदके लक्षणका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1.-वचनसाम- मु.। 2. परे धHशुक्ले मोक्ष- बा., दि. 1, दि. 2, ता., ना.। .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org