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सर्वार्थसिद्धौ
[91406 894
8894. प्रक्षीणसकलज्ञानावरणस्य केवलिनः सयोगस्यायोगस्य च परे उत्तरे शक्लध्याने भवतः।
8 895. यथासंख्यं तद्विकल्पप्रतिपादनार्थमिदमुच्यते
पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवर्तीनि ॥39॥
$ 896. पृथक्त्ववितर्कमेकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्यपरतक्रियानिवति चेति चतुर्विधं शुक्लध्यानम् । वक्ष्यमाणलक्षण' मपेक्ष्य सर्वेषामन्वर्थत्वमवसेयम् । 8897. तस्यालम्बनविशेषनिर्धारणार्थमाह
व्येकयोगकाययोगायोगानाम् ।।40॥ 8 898. 'योग' शब्दो व्याख्यातार्थः 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इत्यत्र । उक्तश्चतुभिः शुक्लघ्यानविकल्पैस्त्रियोगादीनां चतुर्णा यथासंख्येनाभिसंबन्धो वेदितव्यः। त्रियोगस्य पृथक्त्ववितर्कम्, त्रिषु योगेष्वेकयोगस्यैकत्ववितर्कम्, काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति। 8 899. तत्राद्ययोविशेषप्रतिपत्त्यर्थमिदमुच्यते
एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥1॥ 8900. एक आश्रयो ययोस्ते एकाश्रये । 'उभेऽपि परिप्राप्तश्रुतज्ञाननिष्ठेनारभ्येते,
8 894. जिसके समस्त ज्ञानावरणका नाश हो गया है ऐसे सयोगकेवली और अयोगकेवलीके पर अर्थात् अन्तके दो शुक्लध्यान होते हैं।
$ 895. अब क्रमसे शुक्लध्यानके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिति ये चार शुक्लध्यान हैं ॥39॥
8896. पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवति ये चार शुक्लध्यान हैं । आगे कहे जानेवाले लक्षणकी अपेक्षा सबका सार्थक नाम जानना चाहिए।
8 897. अब उसके आलम्बन विशेषका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वे चार ध्यान क्रमसे तीन योगवाले, एक योगवाले, काययोगवाले और अयोगके होते हैं।400
8 898. 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इस सूत्र में योग शब्दका व्याख्यान कर आये हैं । पूर्वमें कहे गये शुक्लध्यानके चार भेदोंके साथ त्रियोग आदि चार पदोंका क्रमसे सम्बन्ध जान लेना चाहिए । तीन योगवालेके पृथक्त्ववितर्क होता है। तीन योगोंमें-से एक योगवालेके एकत्ववितर्क होता है । काययोगवालेके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है और अयोगीके व्युपरतक्रियानिवति ध्यान होता है।
8 899 अब इन चार भेदोंमें-से आदिके दो भेदोंके सम्बन्धमें विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पहलेके दो ध्यान एक आश्रयवाले, सवितर्क और सवीचार होते हैं ॥41॥
8 900. जिन दो ध्यानोंका एक आश्रय होता है वे एक आश्रयवाले कहलाते हैं। जिसने सम्पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा ही ये दो ध्यान आरम्भ किये जाते हैं। यह उक्त 1. --क्षणमुपेत्य सर्वे-- मु.। 2. --मन्वर्थमव- मु. ! 3. उभयेऽपि आ. दि. 1, दि. 2, ना. ।
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