Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 485
________________ -9147 § 719] नवमोऽध्यायः कुशीलो मूलगुणानविराधयन्नुत्तरगुणेषु कांचिद्विराधनां प्रतिसेवते । कषायकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातकाना प्रतिसेवना नास्ति । $915. तीर्थमिति सर्वे सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु भवन्ति । 8916. लिङ्ग द्विविधं द्रव्यलिगं भावलिगं चेति । भावलिगं प्रतीत्य सर्वे पंच निर्ग्रन्था लिगिनो भवन्ति । द्रव्यलिगं प्रतीत्य भाज्याः । [365 8917. लेश्या:- पुलाकस्योत्तरास्तिस्रः बकुशप्रतिसेवनाकुशीलयोः षडपि । कषायकुशीलस्य चतस्र उत्तराः । सूक्ष्मसांपरायस्य निर्ग्रन्थस्नातकयोश्च शुक्लैव केवला । अयोगा अलेश्याः । 8918. उपपाद:- पुलाकस्योत्कृष्ट उपपाद उत्कृष्टस्थितिदेवेषु सहस्रारे । बकुशप्रतिसेवनाशीलयोर्द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिषु आरणाच्युतकल्पयोः । कषायकुशीलनिग्रं न्ययोस्त्रयस्त्रिशसागरोपमस्थितिषु सर्वार्थसिद्धौ । सर्वेषामपि जघन्यः सौधर्मकल्पे द्विसागरोपमस्थितिषु । स्नातकस्य निर्वाणमिति । 8919. स्थानम् -- असंख्येयानि संयमस्थानानि कषायनिमित्तानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि पुलाककषायकुशीलयोः । तौ युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छतः । ततः लाको व्युच्छिद्यते । कषायकुशीलस्ततोऽसंख्येयानि स्थानानि गच्छत्ये काकी । ततः कषायकुशीलप्रतिसेवनाकुशीलवकुशा युगपदसंख्येयानि स्थानानि गच्छन्ति । ततो बकुशो व्युच्छिद्यते । ततोऽ की प्रतिसेवना करनेवाला होता है । कषायकुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातकोंके प्रतिसेवना नहीं होती । 8915. तीर्थ-ये सब निर्ग्रन्थ सब तीर्थंकरोंके तीर्थोंमें होते हैं । 8916. लिंग - लिंग दो प्रकारका है, द्रव्यलिंग और भावलिंग । भावलिंगकी अपेक्षा पांचों ही साधु निर्ग्रन्थ लिंगवाले होते हैं । द्रव्यलिंग अर्थात् शरीरकी ऊँचाई, रंग व पीछी आदिकी अपेक्षा उनमें भेद है । $ 917 लेश्या – पुलाक के आगेकी तीन लेश्याएँ होती हैं । बकुश और प्रतिसेवना-कुशील के छहों लेश्याएँ होती हैं । कषायकुशीलके अन्तकी चार लेश्याएँ होती हैं। सूक्ष्मसाम्पराय कषायकुशील तथा निर्ग्रन्थ और स्नातकके केवल शुक्ल लेश्या होती है और अयोगी लेश्या रहित होते हैं । 8918. उपपाद - पुलाकका उत्कृष्ट उपपाद सहस्रार कल्पके उत्कृष्ट स्थितिवाले देवोंमें होता है । बकुश और प्रतिसेवना कुशीलका उत्कृष्ट उपपाद आरण और अच्युत कल्पमें बाईस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें होता है । कषायकुशील और निर्ग्रन्थका उत्कृष्ट उपपाद सर्वार्थसिद्धिमें तैंतीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें होता है । इन सभीका जघन्य उपपाद सौधर्म कल्पमें दो सागरोपम की स्थितिवाले देवोंमें होता है। तथा स्नातक मोक्ष जाते हैं । 8919. स्थान -- कषायनिमित्तक असंख्यात संयमस्थान होते हैं । पुलाक और कषायकुशीलके सबसे जघन्य लब्धिस्थान होते हैं । वे दोनों असंख्यात स्थानोंतक एक साथ जाते हैं । इसके बाद पुलाककी व्युच्छित्ति हो जाती है। आगे कषायकुशील असंख्यात स्थानोंतक अकेला जाता है । इससे आगे कषायकुशील, प्रतिसेवना कुशील और बकुश असंख्यात स्थानोंतक एक साथ जाते हैं । यहाँ बकुशकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इससे भी असंख्यात स्थान आगे जाकर 1. षडपि । कृष्णलेश्यादित्रितयं तयोः कथमिति चेदुच्यते—तयोरुपक रणासक्तिसंभवादार्तध्यानं कदाचित्संभवति, आर्तध्यानेन च कृष्णादिलेश्यात्रितयं संभवतीति । कषाय - मु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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