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-9144 5906] नवमोऽध्यायः
[359 इत्यर्थः । वितर्कश्च वीचारश्च वितर्कवीचारौ, सह वितर्कवीचाराभ्यां वर्तत इति सवितर्कवीचारे। पूर्वे पृथक्त्वैकत्ववितर्के इत्यर्थः।। 8901. तत्र यथासंख्यप्रसंगेऽनिष्टनिवृत्त्यर्थमिदमुच्यते
__ अवीचारं द्वितीयम् ।।42॥ 8902. पूर्वयोर्यद् द्वितीयं तदवीचारं प्रत्येतव्यम् । एतदुक्तं भवति-आद्यं सवित सवीचारं च भवति । द्वितीयं सवितर्कमवीचारं चेति । 8903. अथ वितर्कवीचारयोः कः प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते
वितर्कः श्रुतम् ॥43॥ 8904. विशेषेण तर्कणमूहनं वितर्कः श्रुतज्ञानमित्यर्थः । 8905. अथ को वीचारः।
वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः ॥4॥ 8906. अर्थो ध्येयो द्रव्यं पर्यायो वा । व्यञ्जनं वचनम् । योगः कायवाङ्मनःकर्मलक्षणः । संक्रान्तिः परिवर्तनम् । द्रव्यं विहाय पर्यायमुपैति पर्यायं त्यक्त्वा द्रव्यमित्यर्थसंक्रान्तिः। एकं श्रुतवचनमपादाय बचनान्तरमालम्बते तदपि विहायान्यदिति व्यञ्जनसंक्रान्तिः । काययोगं त्यक्त्वा योगान्तर गृह्णाति योगान्तरं च त्यक्त्वा काययोगमिति योगसंक्रान्तिः। एवं परिवर्तनं वीचार इत्युच्यते । तदेतत्सामान्यविशेषनिर्दिष्टं चतुर्विधं धयं शुक्लं च पूर्वोदितगुप्त्यादिबहुप्रकारोपायं कथनका तात्पर्य है । जो वितर्क और वीचारके साथ रहते हैं वे सवितर्कवीचार ध्यान कहलाते हैं। सूत्रमें आये हुए पूर्व पदसे पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ये दो ध्यान लिये गये हैं।
8901. पूर्व सूत्रमें यथासंख्यका प्रसंग होनेपर अनिष्ट अर्थकी निवृत्ति करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दूसरा व्यान अवीचार है॥42॥
6902. पहलेके दो ध्यानोंमें जो दूसरा ध्यान है वह अवीचार जानना चाहिए । अभिप्राय यह है कि पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार होता है तथा दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क और अवीचार होता है।
६ 903. अब वितर्क और वीचारमें क्या भेद है यह दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
वितर्कका अर्थ श्रुत है ॥43॥ 8 904. विशेष रूपसे तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना वितर्क श्रुतज्ञान कहलाता है। 8905. अब वीचार किसे कहते हैं यह बात अगले स्त्र द्वारा कहते हैं--- अर्थ, व्यञ्जन और योगको संक्रान्ति वीचार है॥441
8906. अर्थ ध्येयको कहते हैं । इससे द्रव्य और पर्याय लिये जाते हैं। व्यञ्जनका अर्थ वचन है तथा काय, वचन और मनकी क्रियाको योग कहते हैं। संक्रान्तिका अर्थ परिवर्तन है। द्रव्यको छोड़कर पर्यायको प्राप्त होता है और पर्यायको छोड़ द्रव्यको प्राप्त होता है-यह अर्थसंक्रान्ति है। एक श्रुतवचनका आलम्बन लेकर दूसरे वचनका आलम्बन लेता है और उसे भी त्यागकर अन्य वचनका आलम्बन लेता है-यह व्यंजन-संक्रान्ति है। काययोगको छोड़कर दूसरे योगको स्वीकार करता है और दूसरे योगको छोड़कर काययोगको स्वीकार करता है-यह योग1. --न्तरं त्यक्त्वा मु.। 2. इत्युच्यते । संक्रान्तौ सत्यां कथं ध्यानमिति चेत् ध्यानसंतानमपि ध्यानमुभते इति न दोषः । तदेतत्सामान्य- मु. दि. 1, दि. 2, आ.,
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