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सर्वार्थसिद्धौ
[9136 $ 889दीनामकारणं; सम्यग्दर्शनसामर्थ्यात् । संयतस्य तु न भवत्येव; तदारम्भे संयमप्रच्युतः ।
$ 889: आह, 'परे मोक्षहेतू' उपदिष्टे । तत्राद्यस्य मोक्षहेतोया॑नस्य भेदस्वरूपस्वामिनिर्देशः कर्तव्य इत्यत आह---
आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥36॥ $ 890. विचयनं विचयो विवेको विचारणे'त्यर्थः। आज्ञापायविपाकसंस्थानानां विचय आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयः । 'स्मृतिसमन्वाहारः' इत्यनुवर्तते । स प्रत्येकं संबध्यते-आज्ञाविचयाय स्मृतिसमन्वाहार इत्यादि । तद्यथा--उपदेष्टुरभावान्मन्दबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टान्तोपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्यमेवेदं "नान्यथावादिनो जिनाः" इतिगहनपदार्थश्रद्धाना दर्थावधारणमाज्ञाविचयः । अथवा स्वयं विदितपदार्थतत्त्वस्य सतः परं प्रति पिपादयिषोः स्वसिद्धान्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थ तर्कन्यप्रमाणयोजनपरः स्मृतिसमन्वाहारः सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते । जात्यन्धवन्मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद्विमुखा मोक्षार्थिनः सम्यङ्मार्गापरिज्ञानात्सुदूरमेवापयन्तीति सन्मार्गापायचिन्तनमपायविचयः। अथवा-मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वाहारोऽपायविचयः। कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं
नारकादि दुर्गतियोंका कारण नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शनकी ऐसी ही सामर्थ्य है । परन्तु संयतके तो वह होता ही नहीं है, क्योंकि उसका आरम्भ होनेपर संयमसे पतन हो जाता है।
8889. कहते हैं, अन्तके दो ध्यान मोक्षके हेतु हैं यह कह आये। उनमेंसे मोक्षके हेतुरूप प्रथम ध्यानके भेद, स्वरूप और स्वामीका निर्देश करना चाहिए, इसलिए आगेका सत्र कहते हैं
आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनकी विचारणाके निमित्त मनको एकाग्र करना धर्म्यध्यान है ॥36॥
8890. विचयन करना विचय है। विचय, विवेक और विचारणा ये पर्याय नाम हैं। आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनका परस्पर द्वन्द्व समास होकर विचय शब्दके साथ षष्ठीतत्पुरुष समास है और इस प्रकार 'आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयः' पद बना है । 'स्मृतिसमन्वाहारः' पदको अनुवृत्ति होती है । और उसका प्रत्येकके साथ सम्बन्ध होता है। यथा-- आज्ञाविचयके लिए स्मृतिसमन्वाहार आदि । स्पष्टीकरण इस प्रकार है-उपदेश देनेवालेका अभाव होनेसे, स्वयं मन्दबुद्धि होनेसे, कर्मोंका उदय होनेसे तथा पदार्थोंके सूक्ष्म होनेसे तत्त्वके समर्थनमें हेतु और दृष्टान्तका अभाव होनेपर सर्वज्ञप्रणोत आगमको प्रमाण करके 'यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते' इस प्रकार गहन पदार्थके श्रद्धानद्वारा अर्थका अवधारण करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है । अथवा स्वयं पदार्थोंके रहस्यको जानता है और दूसरोंके प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्व-सिद्धान्तके अविरोधद्वारा तत्त्वका समर्थन करनेके लिए उसका जो तर्क, नय और प्रमाणको योजनारूप निरन्तर चिन्तन होता है वह सर्वज्ञकी आज्ञाको प्रकाशित करनेवाला होनेसे आज्ञाविचय कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव जन्मान्ध पुरुषके समान सर्वज्ञप्रणीत मार्गसे विमुख होते हैं, उन्हें सन्मार्गका परिज्ञान न होनेसे वे मोक्षार्थी पुरुषोंको दूरसे ही त्याग देते हैं इस प्रकार सन्मार्गके अपायका चिन्तन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। अथवा, ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रसे कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। बानावरणादि 1. विचारणमित्यर्थः मु. । विचारमित्यर्थः ता. । 2. --द्धानमर्था-- मु.।
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