Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 475
________________ -91368 890] नवमोऽध्यायः [355 विपाकविचयः। लोकसंस्थानस्वभावविचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयः । उत्तमक्षमादिलक्षणो धर्म उक्तः । तस्मादनपेतं धयं ध्यानं चतुर्विकल्पमवसेयम् । तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तपंयतानां भवति। कर्मोके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावनिमित्तक फलके अनुभवके प्रति उपयोगका होना विपाकविचय धर्म्यध्यान है। तथा लोकके आकार और स्वभावका निरन्तर चिन्तन करना संस्थानविचय धर्म्यध्यान है। पहले उत्तम क्षमादिरूप धर्मका स्वरूप कह आये हैं । उससे अनपेत अर्थात् युक्त धर्म्यध्यान चार प्रकारका जानना चाहिए। यह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके होता है। विशेषार्थ संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होनेके लिए या विरक्त होनेपर उस भावको स्थिर बनाये रखनेके लिए सम्यग्दृष्टिका जो प्रणिधान होता है उसे धर्म्यध्यान कहते हैं । यह उत्तम क्षमादिरूप धर्मसे युक्त होता है, इसलिए इसे धर्म्यध्यान कहते हैं। यहाँ निमित्तभेदसे इसके चार भेद किये गये हैं। यथा—आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । आज्ञाविचय तत्त्वनिष्ठामें सहायक होता है, अपायविचय संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्ति उत्पन्न करता है। विपाक विचयसे कर्मफल और उसके कारणोंकी विचित्रताका ज्ञान दृढ़ होता है और संस्थानविचयसे लोकको स्थितिका ज्ञान दृढ़ होता है।। मूल टीकामें विपाकविचयके स्वरूपका निर्देश करते हुए जो द्रव्य, क्षेत्र और काल आदिके निमित्तसे कर्मफलकी चर्चा की है उसका आशय यह है कि यद्यपि कर्मोके उदय या उदीरणासे जीवके औदयिक भाव और विविध प्रकारके शरीरादिककी प्राप्ति होती है पर इन कर्मोंका उदय और उदीरणा बिना अन्य निमित्तके नहीं होती, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र आदिका निमित्त पाकर हो कर्मोंका उदय और उदीरणा होती है । आगे इसी बातको विशेष रूपसे स्पष्ट करते हैं। द्रव्यनिमित्त-मान लो एक व्यक्ति हँस खेल रहा है, वह अपने बाल-बच्चोंके साथ गप्पागोष्ठीमें तल्लीन है । इतने में अकस्मात् मकानको छत टूटती है और वह उससे घायल होकर दुःखका वेदन करने लगता है तो यहाँ उसके दु:खवेदनके कारणभूत असाता वेदनीयके उदय और उदीरणा में टूट कर गिरनेवाली छतका संयोग निमित्त है । टूट कर गिरनेवाली छतके निमित्तसे उस व्यक्तिके असातावेदनीयकी उदय-उदीरणा हुई और असातावेदनीयके उदय-उदीरणासे उस व्यक्तिको दुःखका अनुभवन हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी प्रकार अन्य कर्मोके उदयउदीरणामें बाह्य द्रव्य कैसे निमित्त होता है इसका विचार कर लेना चाहिए। कालनिमित्तकालके निमित्त होनेका विचार दो प्रकारसे किया जाता है। एक तो प्रत्येक कर्मका उदय-उदीरणा काल और दूसरा वह काल जिसके निमित्तसे बीच में ही कर्मोंकी उदय-उदीरणा बदल जाती है। आगममें अध्रुवोदय रूप कर्मके उदय-उदीरणा कालका निर्देश किया है उसके समाप्त होते ही विवक्षित कर्मके उदय-उदीरणाका अभाव होकर उसका स्थान दूसरे कर्मकी उदय-उदीरणा ले लेती है । जैसे सामान्यसे हास्य और रतिका उत्कृष्ट उदय-उदीरणाकाल छह महीना है। इसके बाद इनकी उदय-उदीरणा न होकर अरति और शोककी उदय-उदीरणा होने लगती है। किन्त छह महीनाके भीतर यदि हास्य और रतिके विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच में ही इनकी उदयउंदीरणा बदल जाती है। यह कर्मका उदय-उदीरणा काल है। अब एक ऐसा जीव लो जो निर्भय होकर देशान्तरको जा रहा है, किन्तु किसी दिन मार्गमें ही ऐसे जंगल में रात्रि हो जाती है जहाँ हिंस्र जन्तुओंका प्राबल्य है और विश्राम करनेके लिए कोई निरापद स्थान नहीं है। यदि दिन होता तो उसे रंचमात्र भी भय न होता, किन्तु रात्रि होनेसे वह भयभीत होता है इससे इसके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568