________________
-9122 8862] नवमोऽध्यायः
[347 करणादिविभजनं विवेकः । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्गः । अनशनावमौदर्यादिलक्षणं तपः । दिवसपक्षमासादिना प्रव्रज्याहापनं छेदः । पक्षमासादिविभागेन दूरतः परिवर्जन परिहारः। पुनर्दीक्षाप्रापवमुपल्यापना। कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप प्रायश्चित्त है। दिवस, पक्ष और महीना आदिकी प्रव्रज्याका छेद करना छेदप्रायश्चित्त है । पक्ष, महीना आदिके विभागसे संघसे दूर रखकर त्याग करना परिहारप्रायश्चित्त है। पुनः दीक्षाका प्राप्त करना उपस्थापना प्रायश्चित्त है।
विशेषार्थ-यहाँ प्रायश्चित्तके नौ भेद गिनाये हैं। प्रायः शब्दका अर्थ साधुलोक है। उसका जिस कर्ममें चित्त होता है वह प्रायश्चित्त कहलाता है। अथवा प्रायः शब्दका अर्थ अपराध है और चित्त शब्दका अर्थ शुद्धि है, इसलिए प्रायश्चित्तका अर्थ अपराधोंका शोधन करना होता है। ये ही वे नौ भेद हैं जिनके द्वारा साधु दोषोंका परिमार्जन करता है। पहला भेद आलोचना है । आलोचना इन दश दोषोंसे रहित होकर की जाती है । दश दोष यथा-उपकरण देनेपर मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे ऐसा विचारकर उपकरण प्रदान करना यह प्रथम आलोचना दोष है । मैं प्रकृतिसे दुर्बल हूँ, ग्लान हूँ, उपवास आदि नहीं कर सकता। यदि लघु प्रायश्चित्त दें तो दोष कहूँगा ऐसा कहना दूसरा दोष है । अन्य अदृष्ट (गुप्त) दोषोंको छिपा कर प्रकाशमें आये हुए दोषका निवेदन करना तीसरा मायाचार दोष है । आलस्यवश या प्रमादवश अपने अपराधोंकी जानकारी प्राप्त करनेमें निरुत्सुक होनेपर स्थूल दोष कहना चौथा दोष है । महा दुश्चर प्रायश्चित्तके भयसे महादोष छिपा कर उससे हलके दोषका ज्ञान कराना पांचर्चा दोष है। व्रतमें इस प्रकार दोष लगनेपर हमें क्या प्रायश्चित्त करना पड़ेगा इस विधिसे गुरुकी उपासना करना छठा दोष है.। पाक्षिक और चातुर्मासिक आदि क्रिया कर्मके समय बहुत साधुओं द्वारा किये जानेवाले आलोचनाजन्य शब्दोंसे प्रदेशके व्याप्त होनेपर पूर्व दोष कहना सातवां दोष है। गुरुद्वारा दिया हुआ प्रायश्चित्त क्या युक्त है, आगममें इसका विधान है या नहीं इस प्रकारकी शंका अन्य साधके समक्ष प्रकट करना आठवाँ दोष है। किसी प्रयोजनवश अपने समान साधुके समक्ष दोष कह कर प्रायश्चित्त लेना नौवाँ दोष है। इस विधि से लिया हुआ बड़ासे बड़ा प्रायश्चित्त भी फलदायक नहीं होता। मेरा दोष इसके अपराधके समान है। इसे यह भी जानता है। इसे जो प्रायश्चित्त मिलेगा वह मुझे भी यूक्त है इस प्रकार अपने दोषको छिपाना दसवाँ दोष है।
___ अन्यत्र इन दश दोषोंके आकम्पित, अनुमानित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ये नाम आये हैं। प्रायश्चित्तका दूसरा भेद प्रतिक्रमण है। मेरा दोष मिथ्या हो ऐसा निवेदन करना प्रतिक्रमण है । यह शिष्य करता है और गुरुके द्वारा जो आलोचनापूर्वक प्रतिक्रमण किया जाता है वह तदुभय कहलाता है । यह प्रायश्चित्तका तीसरा भेद है। आगे के प्रायश्चित्तोंके जिनके जो नाम हैं तदनुसार उनका स्वरूप है । यहाँ प्रायश्चित्त के ये नौ भेद कहे हैं, किन्तु मुलाचारमें इसके आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्यूत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान इस प्रकार दस भेद किये हैं । टीकाकारने इनका स्पष्टीकरण करते समय मूलका वही अर्थ किया है जो यहाँ उपस्थापनाका किया गया है । तथा मानसिक दोषके होनेपर उसके परिमार्जनके लिए मेरा दोष मिथ्या हो ऐसा अभिव्यक्त करनेको श्रद्धान नामका प्रायश्चित्त बतलाया है।
1.-मासादीनां प्रव-मु.। 2. परिवर्जनीयं परि-
आ.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org