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-91116841] नवमोऽध्यायः
[337 सूक्ष्म सांपराय छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥10॥ 8 839. क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्याशय्यावधालाभरोगतृणस्पर्शमलप्रज्ञाज्ञानानि । 'चतुर्वश' इति वचनादन्येषां परिषहाणामभावो वेदितव्यः। आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीयाभावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरिषहाभावाच्चतुर्दशनियमवचनम् । सूक्ष्मसांपराये तु मोहो
दभावात 'चतुर्दश' इति नियमो नोपपद्यत इति? तदयक्तम; सन्मात्रत्वात । तत्र हि केवलो लोभसंज्वलनकषायोदयः सोऽप्यतिसूक्ष्मः । ततो वीतरागछद्मस्थकल्पत्वात् 'चतुर्दश' इति नियमस्तत्रापि युज्यते । ननु मोहोवयसहायाभावान्मन्दोदयत्वाच्च क्षुदादिवेदनाभावात्तस्सहनकृतपरिषहव्यपदेशो न युक्तिमवतरति । तन्न ? किं कारणम् । शक्तिमात्रस्य विवक्षितत्वात् । सर्वार्थसिद्धिवेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत् ।
840. आह, यदि शरीरवत्यात्मनि परिषहसंनिधानं प्रतिज्ञायते अथ भवति उत्पन्नकेवलजाने कर्मचतुष्टयफलानुभवनवशतिनि कियन्त उपनिपतन्तीत्यत्रोच्यते । तस्मिन्पुनः
___एकादश जिने ॥11॥ 8841. निरस्तघातिकर्मचतुष्टये जिने वेदनीयसद्भावात्तदाश्रया एकादशपरिषहाः संति। ननु च मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुदादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्तः ? सत्यमेवमेतत्
सूक्ष्मसाम्पराय और छद्मस्थवीतरागके चौवह परीषह सम्भव हैं॥10॥
8 839. क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परीषह हैं । सूत्रमें आये हुए 'चतुर्दश' इस वचनसे अन्य परीषहोंका अभाव जानना चाहिए । शंका-वीतरागछद्मस्थके मोहनीयके अभावसे तत्कृत आगे कहे जानेवाले आठ परीषहोंका अभाव होनेसे चौदह परीषहोंके नियमका वचन तो युक्त है, परन्तु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयका उदय होनेसे चौदह परोषह होते हैं यह नियम नहीं बनता। समाधान-यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीय का सद्भाव है। वहाँ पर केवल लोभसंज्वलन कषायका उदय होता है और वह भी अतिसूक्ष्म होता है, इसलिए वीतराग छद्मस्थके समान होनेसे सूक्ष्मसाम्परायमें चौदह परीषह होते हैं यह नियम वहाँ भी बन जाता है । शंकाइन स्थानोंमें मोहके उदयकी सहायता नहीं होनेसे और मन्द उदय होनेसे क्षुधादि वेदनाका अभाव है इसलिए इनके कार्यरूपसे 'परीषह' संज्ञा युक्तिको नहीं प्राप्त होती । समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ शक्तिमात्र विवक्षित है । जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवके सातवीं पृथ्वीके गमनके सामर्थ्यका निर्देश करते हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए।
8840. यदि शरीरवाले आत्मामें परीषहोंके सन्निधानकी प्रतिज्ञा की जाती है तो केवलज्ञानको प्राप्त और चार कर्मोके फलके अनुभवके वशवर्ती भगवान्के कितने परीषह प्राप्त होते हैं इसलिए यहाँ कहते हैं। उनमें तो
जिन में ग्यारह परीषह सम्भव हैं ॥11॥
8841. जिन्होंने चार घातिया कर्मोंका नाश कर दिया है ऐसे जिन भगवान्में वेदनीयकर्मका सद्भाव होनेसे तन्निमित्तक ग्यारह परीषह होते हैं। शंका-मोहनीयके उदयकी सहायता 1.देयणीयभवाए ए पन्नानाणा उ आइमे । अट्ठमंमि अलाभोत्थो छउमत्थे चोद्दस ॥'-पञ्चसं.द्वा.4, गा. 221 2. मुद्रितप्रती मोहनीयाभावाद्वक्ष्यमाणनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कारादर्शनानि उत्कृताष्टति पाठः । लिखितप्रतिषु च तथैव । परं नासो सम्यक् प्रतिभाति संशोधितपाठस्तु तत्त्वार्थवार्तिकपाठानुसारी इति सोऽत्र योजितः। 3. केवललोभ- मु.। 4. 'खुप्पिवासुण्हसीयाणि सेज्जा रोगो वहो मलो। तणफासो चरीया य दंसेक्कारस जोगिसु ॥' --पंचसं. द्वा. 4, गा., 22। 5. ननु मोह-मु.।
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