________________
342] सर्वार्थसिद्धी
[9116 8498849. अवशिष्टपरिषहप्रकृतिविशेषप्रतिपादनार्थमाह
वेदनीये शेषाः ॥16॥ 8850. उक्ता एकादश परिषहाः । तेभ्योऽन्ये शेषाः वेदनीये सति 'भवन्ति' इति वाक्यशेषः । के पुनस्ते ? क्षुत्पिपासाशीतोष्णवंशमशकचर्याशय्यावधरोगतृणस्पर्शमलपरिषहाः।
8851. आह, व्याख्यातनिमित्तलक्षणविकल्पाः प्रत्यात्मनि प्रादुर्भवन्तः कति युगपदवतिष्ठन्त इत्यत्रोच्यते
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविंशतः ॥17॥ 8852. आङभिविध्यर्थः । तेन एकोनविंशतिरपि क्वचित् युगपत्संभवतीत्यवगम्यते । तत्कथम? इति चेदच्यते-शीतोष्णपरिषहयोरेकः शय्यानिषद्याचर्याणां चान्यतम एव भवति एकस्मिन्नात्मनि । कृतः? विरोधात् । तत्त्रयाणामपगमे युगपदेकात्मनीतरेषां संभवादेकोनविंशतिविकल्पा बोद्धव्याः । ननु प्रज्ञाज्ञानयोरपि विरोधाधुगपदसंभवः ? श्रुतज्ञानापेक्षया प्रज्ञापरिषहः कण्टकादिनिमित्तक वेदना ये दोनों कार्य सम्भव हैं । इसलिए इन दोनों कार्योंका परिज्ञान कराने के लिए निषद्याको मोहनिमित्तक और शेष दोको. वेदनीयनिमित्तक कहा है।
849. अब अवशिष्ट परीषहोंकी प्रकृति विशेषका कथन करनेकेलिए आगेका सूत्र कहते हैं
बाकीके सब परीषह वेदनीयके सद्भावमें होते हैं ॥16॥
8850 ग्यारह परीषह पहले कह आये हैं। उनसे अन्य शेष परीषह हैं। वे वेदनीयके सदभाव में होते हैं। यहाँ 'भवन्ति' यह वाक्यशेष है। शंका-वे कौन-कौन हैं ? समाधान-क्षधा, पिपासा, शीत. उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मलपरीषह।
विशेषार्थ-शरीरमें भोजनका कम होना, पानीका कम होना, कण्ठका सूखना, ऋतुमें ठण्डी या गरमीका होना, डांस-मच्छरका काटना, गमन व शयन करते समय कण्टक आदिका चुभना, किसीके द्वारा मारना, गाली-गलौज करना, शरीरमें रोगका होना, तिनका आदिका चुभना और शरीरमें मलका जमा होना आदि अपने-अपने कारणोंसे होते हैं। इनका कारण वेदनीय कर्मका उदय नहीं है पर इन कामोंके होने पर भूखकी वेदना होती है, प्यास लगती है आदि वह वेदनीय कर्मका कार्य है । ऐसा यहाँ अभिप्राय समझना चाहिए। . 851. कहते हैं, परीषहों के निमित्त, लक्षण और भेद कहे । प्रत्येक आत्मामें उत्पन्न होते हुए वे एक साथ कितने हो सकते हैं, इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
एक साथ एक आत्मामें एकसे लेकर उन्नीस तक परीषह विकल्पसे हो सकते हैं ॥17॥
8852. यहाँ 'आङ्' अभिविधि अर्थ में आया है। इससे किसी एक आत्मा में एक साथ उन्नीस भी सम्भव हैं यह ज्ञात होता है। शंका-यह कैसे ? समावान-एक आत्मामें शीत और उष्ण परीषहोंमें-से कोई एक तथा शय्या, निषद्या और चर्या इनमें से कोई एक परीषह ही होते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण इन दोनोंके तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनोंके एक साथ होने में विरोध आता है। इन तीनोंके निकाल देनेपर एक साथ एक आत्मामें इतर परीषह सम्भव होनेसे वे सब मिलकर उन्नीस परीषह जानना चाहिए । शंका-प्रज्ञा और अज्ञान परीषहमें भी विरोध है, इसलिए इन दोनों का एक साथ होना असम्भव है ? समाधान- एक साथ एक आत्मामें श्रुत1.--चर्याणामन्यतम मु.। 2. कल्पो बोद्धव्यो । ननु आ., दि. 2।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org