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-9115 § 848]
नवमोऽध्यायः
आह, aura मोहनीयभेदे एकः परिषहः अथ द्वितीयस्मिन् कति भवन्तीत्यत्रोच्यतेचारित्रमोहे नाग्न्या रतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः ।।15। $ 848. 'वेदोदयादिनिमित्तत्वान्नाग्न्यादिपरिषहाणां मोहोदयनिमित्तत्वं प्रतिपद्यामहे । निषद्यापरिषहस्य कथम् ? तत्रापि प्राणिपीडापरिहारार्थत्वात् । मोहोदये सति प्राणिपीडापरिणामः संजायत इति ।
स्वरूपमें स्थित रहता है तथापि सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे आप्त, आगम और पदार्थोंके विषय में उसकी बुद्धि चलायमान होती रहती है । यही चल दोष है । मलका अर्थ मैल है । शंकादि दोषोंके निमित्तसे सम्यग्दर्शनका मलिन होना मल दोष है । यह भी सम्यक्त्व मोहनीयके उदयमें
है । तथा गाढा अर्थ स्थिर न रहना है । सम्यग्दृष्टि जीव लौकिक प्रयोजनवश कदाचित् तत्त्वसे चलायमान होने लगता है । उदाहरणार्थ - अन्य अन्यका कर्ता नहीं होता यह • सिद्धान्त है और सम्यग्दृष्टि इसे भली प्रकार जानता है, पर रागवश वह इस सिद्धान्त पर स्थिर नहीं रह पाता । कदाचित् वह पारमार्थिक कार्यको भी लौकिकप्रयोजनका प्रयोजक मान बैठता है । इस प्रकार सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे ये तीन दोष होते हैं । ये तीनों एक हैं फिर भी भिन्नभिन्न अभिप्रायकी दृष्टिसे यहाँ इन्हें पृथक्-पृथक् रूपसे परिगणित किया है । प्रकृतमें इसी दोषको ध्यान में रखकर अदर्शन परीषहका निर्देश किया है । यह दर्शनमोहनीयके उदयसे होता है, इसलिए इसे दर्शनमोहनीयका कार्य कहा है । भोजनादि पदार्थोंका न प्राप्त होना अन्य बात है पर भोजनादि पदार्थों के न मिलने पर जिसके 'अलाभ' परिणाम होता है उसका वह परिणाम लाभान्तराय कर्मका कार्य होनेसे अलाभको लाभान्तराय कर्मका कार्य कहा है । परके लाभको स्वका लाभ मानना मिथ्यात्व दर्शनमोहनीयका कार्य है, इसलिए यहाँ इसकी विवक्षा नहीं है । यहाँ तो अलाभ परिणाम किसके उदयमें होता है इतना ही विचार किया है । इसप्रकार अदर्शनभाव मोहनीय कर्मका और अलाभभाव लाभान्तराय कर्मका कार्य है यह निश्चित होता है ।
कहते हैं--यदि आदिके मोहनीयके भेदके होनेपर एक परीषह होता है तो दूसरे भेदके होने पर कितने परीषह होते हैं, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
चारित्रमोहके सद्भावमें नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कारपुरस्कार परीषह होते हैं ॥15॥
8848. शंका - नाग्न्यादि परीषह पुवेदोदय आदिके निमित्तसे होते हैं, इसलिए मोहोदयको उनका निमित्त कहते हैं पर निषद्यापरीषह मोहोदय के निमित्तसे कैसे होता है ? समाधान - उसमें भी प्राणिपीड़ाके परिहारको मुख्यता होनेसे वह मोहोदयनिमित्तक माना गया है, क्योंकि मोहोदय होनेपर प्राणिपीड़ारूप परिणाम होता है ।
विशेषार्थ -आगे चर्या और शय्याको वेदनीयनिमित्तक कहा है और यहाँ निषद्याको मोहनीयनिमित्तक । ये तोनों परीषह एक श्रेणीके I । फिर क्या कारण है कि इनमें से निषद्याको महोदय निमित्तक कहा है। यदि चर्या और शय्या परीषह वेदनीयनिमित्तक होते हैं तो इसे वेदनीयनिमित्तक क्यों नहीं माना जाता । यह एक प्रश्न है जिसका उत्तर टीकामें दिया है । वहाँ बतलाया है कि प्राणिपीड़ारूप परिणाम मोहोदय से होता है और निषद्याप रीषहजय में इस प्रकारके परिणामपर विजय पानेकी मुख्यता है । यही कारण है कि निषद्याको चारित्रमोहनिमित्तक माना है। माना कि इस विवक्षासे चर्या और शय्या परीषहको भी मोहोदयनिमित्तक मान सकते थे पर वहाँ कण्टकादिकके निमित्तसे होनेवाली वेदनाकी मुख्यता करके उक्त दोनों परीषह वेदनीयनिमित्तक कहें हैं । तात्पर्य यह है कि चर्या, शय्या और निषद्या इनमें प्राणिपीड़ा और
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