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340] सर्वार्थसिद्धौ
[91148844844. आह, गृहीतमेतत्परिषहाणां स्थानविशेषावधारणम्, इदं तु न विद्मः कस्याः प्रकृतेः कः कार्य इत्यत्रोच्यते
ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥13॥ 8845. इदमयुक्तं वर्तते। किमत्रायुक्तम् ? ज्ञानावरणे सत्यज्ञानपरिषह उपपद्यते, प्रजापरिवहः पुनस्तदपाये भवतीति कथं ज्ञानावरणे स्यात् ? इत्यत्रोच्यते-सायोपशमिको प्रज्ञा अन्यस्मिन् ज्ञानावरणे सति मंदं जनयति न सकलावरणक्षये इति ज्ञानावरणे सतीत्युपपद्यते। 8846. पुनरपरयोः परिषहयोः प्रकृतिविशेषनिर्देशार्थमाह
दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥14॥ 6847. यथासंख्यमभिसंबन्धः । दर्शनमोहे अदर्शनपरिषहो, लाभान्तराये अलाभपरिषह इति। साम्पराय अर्थात् स्थूल कषायमें सब परीषह सम्भव हैं यही अर्थ लेना चाहिए।
6844. कहते हैं-इन परीषहोंके स्थानविशेषका अवधारण किया, किन्तु हम यह नहीं जानते कि किस प्रकृतिका क्या कार्य है इसलिए यहाँपर कहते हैं
ज्ञानावरणके सद्भावमें प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं ॥13॥
$ 845. शंका--यह अयुक्त है ? प्रतिशंका-यहाँ क्या अयुक्त है। शंका-माना कि ज्ञानावरणके होनेपर अज्ञान परीषह उत्पन्न होता है, परन्तु प्रज्ञा परीषह उसके अभावमें होता हैं, इसलिए वह ज्ञानावरणके सद्भावमें कैसे हो सकता है ? समाधान--यहाँ कहते हैं-क्षायोपशमिकी प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरणके होनेपर मदको उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरणके क्षय होने पर नहीं, इसलिए ज्ञानावरणके होनेपर प्रज्ञा परीषह होती है यह कथन बन जाता है। - विशेषार्थ-विकल्पका अर्थ श्रुतज्ञान है, इसलिए जहाँ तक श्रुतज्ञान होता है वहां तक 'मैं अधिक जानता हूँ, यह कुछ भी नहीं जानता' ऐसा विकल्प देखा जाता है। यद्यपि इस प्रकारका विकल्प करनेवाले व्यक्तिको अधिक ज्ञानका लाभ ज्ञानावरण कर्मके प्रकृष्ट क्षयोपशमसे होता है तथापि जबतक क्षायोपशमिक ज्ञान होता है तभी तक यह विकल्प होता है और क्षायोपशमिक ज्ञान उदयसापेक्ष होता है, इसलिए यहाँ पर इस प्रकारके विकल्पका मुख्य कारण ज्ञानावरण कर्म का उदय कहा है । बहुतसे जोवोंको मोहका उदय रहते हुए भी ऐसा भाव होता है कि 'मैं महाप्राज्ञ हूँ, मेरी बराबरी करनेवाला अन्य कोई नहीं ।' पर यहाँ मोहके उदयसे होनेवाले इस भावका ग्रहण नहीं किया है। यहाँ तो अपनी अज्ञानतावश जो अल्पज्ञानको महाज्ञान माननेका विकल्प होता है उसीका ग्रहण किया है। इस प्रकार ज्ञानावरणके सदभावमें प्रज्ञा और अज्ञान दो परीषह होते हैं यह निश्चित होता है।
846..पुनः अन्य दो परीषहोंको प्रकृति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
दर्शनमोह और अन्तरायके सद्भावमें क्रमसे अदर्शन और अलाभ परीषह होते हैं. ॥14॥
6 847. इस सूत्रमें 'यथासंख्य' पदका सम्बन्ध होता है । दर्शनमोहके सद्भावमें अदर्शन परोषह होता है और लाभान्तरायके सद्भावमें अलाभ परीषह होता है।
_ विशेषार्थ-दर्शनमोहसे यहाँ सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति ली गयी है। इसका उदय रहते हुए चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते हैं । सम्यक्त्वके रहते हुए भी आप्त, आगम और पदार्थोके विषयमें नाना विकल्प होना चल दोष है । जिस प्रकार जलके स्वस्थ होते हुए भी उसमें वायुके निमित्तसे तरंगमाला उठा करती है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष यद्यपि अपने
परोषह होता है
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