Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 458
________________ 338] सर्वार्थसिद्धौ [91118 841वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसभावापेक्षया परिषहोपचारः क्रियते, निरवशेषनिरस्तज्ञानातिशये चिन्तानिरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिहरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत् । अथवा-एकादश जिने 'न संति' इति वाक्यशेषः कल्पनीयः; सोपस्कारत्वात्सूत्राणाम् । “कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं च वक्तर्यधीनम्" इत्युपगमात् । मोहोदयसहायीकृतक्षुदादि वेदनाभावात् 'न सन्ति' इति वाक्यशेषः । न होनेसे क्षुधादि वेदनाके न होनेपर परीषह संज्ञा युक्त नहीं है । समाधान--यह कथन सत्य ही है तथापि वेदनाका अभाव होनेपर भी द्रव्यकमके सदभावकी अपेक्षासे यहाँ परीषहोंका उपचार किया जाता है। जिस प्रकार समस्त ज्ञानावरणके नाश हो जानेपर एक साथ समस्त पदार्थोके रहस्यको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानातिशयके होनेपर चिन्ता-निरोधका अभाव होनेपर भी कर्मोंके नाश रूप उसके फलकी अपेक्षा ध्यानका उपचार किया जाता है उसी प्रकार यहाँ परीपहोंका उपचारसे कथन जानना चाहिए, अथवा जिन भगवान् में ग्यारह परीषह नहीं हैं' इतना वाक्यशेष कल्पित कर लेना चाहिए क्योंकि सूत्र उपस्कारसहित होते हैं । 'वाक्य शेषकी कल्पना करनी चाहिए और वाक्य वक्ताके अधीन होता है' ऐसा स्वीकार भी किया गया है। मोहके उदयकी सहायतासे होनेवाली क्षुधादि वेदनाओंका अभाव होनेसे 'नहीं हैं' यह वाक्यशेष उपन्यस्त किया गया है। विशेषार्थ-जिन भगवान्के असाता वेदनीयका उदय होता है और यह क्षुधादि वेदनाका कारण है इसलिए यहाँ जिन भगवानके कारणकी दष्टिसे क्षधादि ग्यारह परीषह कहे जाते हैं । पर क्या सचमुच में जिन भगवान् के क्षुधादि ग्यारह परीषह होते हैं यह एक प्रश्न है जिसका समाधान टीकामें दो प्रकारसे किया है। पहले तो जिन भगवान् के क्षुधादि परीषहोंके होनेके कारणके सद्भावकी अपेक्षा उनके उपचारसे अस्तित्वका निर्देश किया है पर कार्यरूपमें क्षुधादि ग्यारह परीषह जिन भगवान के नहीं होते इसलिए इस दृष्टि से 'न सन्ति' इस वाक्यशेषकी योजना कर वहाँ उनका निषेध किया है। अब यहाँ यह देखना है कि जिन भगवान्के क्षुधादि ग्यारह परीषह नहीं होते यह कैसे समझा जाय । वे इस काल में पाये तो जाते नहीं, इसलिए प्रत्यक्ष देखकर तो यह जाना नहीं जा सकता । एक मात्र आगमको पुष्ट करनेवाली युक्तियाँ ही शेष रहती हैं जिनके अवलम्बनसे यह बात समझो जा सकती है, अत: यहाँ उन्हीका निर्देश करते हैं--- 1. केवली जिन के शरीरमें निगोद और त्रस जीव नहीं रहते। उनका क्षीणमोह गुणस्थान में अभाव होकर वे परम औदारिक शरीरके धारी होते हैं। अत: भूख, प्यास और रोगादिकका कारण नहीं रहनेसे उन्हें भूख, प्यास और रोगादिककी बाधा नहीं होती। देवोंके शरीरमें इन जीवोंके न होनेसे जो विशेषता होती है उससे अनन्तगुणी विशेषता इनके शरीरमें उत्पन्न हो जाती है । 2. श्रेणि आरोहण करने पर प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग उत्तरोत्तर अमन्तगुणा बढ़ता जाता है और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभाग प्रति समय अनन्तगुणा हीन होता जाता है। इसलिए तेरहवें गुणस्थानमें होनेवाला असाता प्रकृतिका उदय इतना बलवान् नहीं होता जिससे उसे क्षुधादि कार्योंका सूचक माना जा सके। 3. असाताकी उदीरणा छठे गुणस्थान तक ही होती है, आगे नहीं होती, इसलिए उदीरणाके अभावमें वेदनीय कर्म क्षुधादिरूप कार्यका वेदन करानेमें असमर्थ है। जब कि केवली जिन के शरीरको पानी और भोजनकी ही आवश्यकता नहीं रहती तब इनके न मिलनेसे जो क्षुधा और तृषा होती है वह उनके हो ही कैसे सकती है। 1. 'कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाक्यं वक्तर्वधीनं हि' --पा. म. भा. 1, 1, 8 । 2. -भावात् । आह मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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