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336] सर्वार्थसिद्धौ
[919 8 835भास्करप्रभाभिभूतखद्योतोद्योतवन्नितरां नावभासन्त इति विज्ञानमदनिरासः प्रज्ञापरिषहजयः प्रत्येतव्यः।
8835. अज्ञोऽयं न वेत्ति पशुसम इत्येवमाद्यविक्षेपवचनं सहमानस्य परमदुश्चरतपोऽनुष्ठायिनो नित्यमप्रमत्तचेतसो मेऽद्यापि ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इति अनभिसंदधतोऽज्ञानपरिषहजयोऽवगन्तव्यः ।
8836. परमवैराग्यभावनाशुद्धहृदयस्य विदितसकलपदार्थतत्त्वस्याहदायतनसाधुधर्मपूजकस्य चिरन्तनप्रत्र जितस्याद्यापि मे ज्ञानातिशयो नोत्पद्यते । महोपवासाद्यनुष्ठायिनां प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुरभूवन्निति प्रलापमात्रमनथिकेयं प्रव्रज्या। विफलं व्रतपरिपालनमित्येवमसमावधानस्य दर्शनविशुद्धियोगाददर्शनपरिषहसहनमवसातव्यम् ।
6837. एवं परिषहान् असंकल्पोपस्थितान् सहमानस्यासंक्लिष्टचेतसो रागादिपरिणामास्रवनिरोधान्महान् संवरो भवति ।
6838. आह, किमिमे परिषहाः सर्वे संसारमहाटवीमतिक्रमितुमभ्युद्यतमभिद्रवन्ति उत कश्चित्प्रतिविशेष इत्यत्रोच्यते--अमी व्याख्यातलक्षणाः क्षुदादयश्चारित्रान्तराणि प्रति भाज्याः। नियमेन पुनरनयोः प्रत्येतव्याः
और अध्यात्मशास्त्रमें निपुण हूँ। मेरे आगे दूसरे जन सूर्यकी प्रभासे अभिभूत हुए खद्योतके उद्योतके समान बिलकुल नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमदका निरास होना प्रज्ञापरीषहजय जानना चाहिए।
6 835. यह मूर्ख है, कुछ नहीं जानता है, पशुके समान है इत्यादि तिरस्कारके वचनों को मैं सहन करता हूँ, मैंने परम दुश्चर तपका अनुष्ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञानका अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है इस प्रकार विचार नहीं करनेवालेके अज्ञानपरीषजय जानना चाहिए।
836. परम वैराग्यकी भावनासे मेरा हृदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थोंके रहस्यको जान लिया है, मैं अरहन्त, आयतन, साधु और धर्मका उपासक हूँ, चिरकालसे मैं प्रव्रजित हूँ तो भी मेरे अभी ज्ञानातिशय नहीं उत्पन्न हुआ है । महोपवास आदिका अनुष्ठान करनेवालोंके प्रातिहार्य विशेष उत्पन्न हुए यह प्रलापमात्र है, यह प्रव्रज्या अनर्थक है, व्रतोंका पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातोंका दर्शनविशुद्धिके योगसे मनमें नहीं विचार करनेवालेके अदर्शनपरिषहसहन जानना चाहिए।
8837. इस प्रकार जो संकल्पके बिना उपस्थित हुए परीषहोंको सहन करता है और जिसका चित्त संक्लेश रहित है उसके रागादि परिणामोंके आस्रवका निरोध होनेसे महान् संवर होता है।
6838. संसाररूपी महा अटवीको उल्लंघन करनेके लिए उद्यत हुए पुरुषोंको क्या ये सब परीषह प्राप्त होती हैं या कोई विशेषता है इसलिए यहाँ कहते हैं-जिनके लक्षण कह आये हैं ऐसे ये क्षुधादिक परीषह अलग-अलग चारित्रके प्रति विकल्पसे होते हैं । उसमें भी इन दोनोंमें नियमसे जानने योग्य--
1. -धवक्षेप-- मु.। -द्यविक्षेप- दि. 1,2।
2. मेऽद्यत्वेपि विज्ञा-मु.। 3.-षहान् सह- मु. ।
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