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सर्वार्थसिद्धौ
[9198814F814. तत्स्वरूपसंख्यासंप्रतिपत्त्यर्थमाहक्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचना
लाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥9॥
8815. क्षुदादयो वेदनाविशेषा द्वाविंशतिः। एतेषां सहनं मोक्षार्थिना कर्तव्यम् । तद्यथा-भिक्षोनिरवद्याहारगवेषिणस्तदलाभे ईषल्लाभे च अनिवृत्तवेदनस्याकाले अदेशे च भिक्षां प्रति निवृत्तेच्छस्यावश्यकपरिहाणि मनागप्यसहमानस्य स्वाध्यायध्यानभावनापरस्य बहुकृत्वः स्वकृतपरकृतानशनावमौदर्यस्य नीरसाहारस्य संतप्तभ्राष्ट्रपतितजलबिन्दुकतिपयवत्सहसा परिशुष्कपानस्योदोर्णक्षुद्वेदनस्यापि सतो भिक्षालाभादलाभमधिकगुणं मन्यमानस्य क्षुद्बाधां प्रत्यचिन्तनं क्षुद्विजयः।
8816. जलस्नानावगाहनपरिषेकपरित्यागिनः पतत्रिवदनियतासनावसथस्यातिलवण. स्निग्धरूक्षविरुद्धाहारग्रेष्मातपपित्तज्वरानशनादिभिरदीर्णा शरीरेन्द्रियोन्माथिनी पिपासां प्रत्यनाद्रियमाणप्रतीकारस्य पिपासानलशिखां धृतिनवमृद्घटपूरितशीतलसुगन्धिसमाधिवारिणा प्रशसयतः पिपासासहन प्रशस्यते।
8817. परित्यक्तप्रच्छादनस्य पक्षिवदनवधारितालयस्य वृक्षमूलपथिशिलातलादिषु
8814. अब उन परीषहोंके स्वरूप और संख्याका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, याचना, अलाभ, रोग, तणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन नामवाले परीषह हैं ॥9॥
815. क्षुधादिक वेदनाविशेष बाईस हैं। मोक्षार्थी पुरुषको इनको सहन करना चाहिए। यथा--जो भिक्षु निर्दोष आहारका शोध करता है, जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्पमात्रामें मिलने पर क्षधावेदनाको नहीं प्राप्त होता, अकालमें या अदेशमें जिसे भिक्षा लेनेकी इच्छा नहीं होती, आवश्यकोंकी हानिको जो थोड़ा भी सहन नहीं करता, जो स्वाध्याय और ध्यानभावनामें तत्पर रहता है, जिसने बहत बार स्वकृत और परकृत अनशन व अवमौदर्य तप किया है, जो नीरस आहारको लेता है, अत्यन्त गरम भांडमें गिरी हुई जल की कतिपय बूंदोंके समान जिसका गला सूख गया है और क्षुधावेदनाको उदीरणा होनेपर भी जो भिक्षालाभकी अपेक्षा उसके अलाभको अधिक गुणकारो मानता है उसका क्षुधाजन्य बाधाका चिन्तन नहीं करना क्षुधापरीषहजय है।
8816. जिसने जलसे स्नान करने, उसमें अवगाहन करने और उससे सिंचन करनेका त्याग कर दिया है, जिसका पक्षोके समान आसन और आवास नियत नहीं है, जो अतिखारे, अतिस्निग्ध और अतिरूक्ष प्रकृति विरुद्ध आहार, ग्रीष्मकालीन आतप, पित्तज्वर और अनशन आदिके कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियोंको मथनेवाली पिपासाका प्रतीकार करने में आदरभाव नहीं रखता और जो पिपासारूपी अग्निशिखाको सन्तोषरूपी नूतन मिट्टीके घड़े ने भरे हुए शीतल सुगन्धि समाधिरूपी जलसे शान्त कर रहा है उसके पिपासाजय प्रशंसाके योग्य है।
8817. जिसने आवरणका त्याग कर दिया है, पक्षीके समान जिसका आवास निश्चित 1. --रस्य तप्त- मु.।
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