Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 446
________________ 326] सर्वार्थसिद्धौ [917 $ 803विद्यते । एक एव जायेऽहम् । एक एव म्रिये । न मे कश्चित् स्वजनः परजनो वा व्याधिजरामरणादीनि दुःखान्यपहरति । बन्धुमित्राणि स्मशानं नातिवर्तन्ते । धर्म एव मे सहायः सदा अनपायोति चिन्तनमेकत्वानुप्रेक्षा । एवं ह्यस्य भावयतः स्वजनेषु प्रीत्यनुबन्धो न भवति । परजनेषु च द्वेषानुबन्धो नोपजायते । ततो निःसङ्गतामभ्युपगतो मोक्षायैव घटते।। 803. शरीरादन्यत्वचिन्तनमन्यत्वानुप्रेक्षा। तद्यथा-बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्योऽहमैन्द्रियकं शरीर मतीन्द्रियोऽहमज्ञं शरीरं ज्ञोऽहमनित्यं शरीरं नित्योऽहमाघन्तवच्छरीरमनाद्यनन्तोऽहम । बहनि मे शरीरशतसहस्राण्यतीतानि संसारे परिभ्रमतः । स एवाहमन्यस्तेभ्य इत्येवं मे किमङ्ग, पुनर्बाह्य भ्यः परिग्रहेभ्यः इत्येवं ह्यस्य मनः समादधानस्य शरीरादिषु स्पृहा नोत्पद्यते । ततस्तत्वज्ञानभावनापूर्वके वैराग्यप्रकर्षे सति आत्यन्तिकस्य मोक्षसुखस्या वाप्तिर्भवति । 8804. शरीरमिदमत्यन्ताशुचियोनि' शुक्रशोणिताशुचिसंवधितमवस्करववशुचिभाजनं त्वङ्मावप्रच्छादितमतिपूतिरसनिष्यन्दिस्रोतोबिलमङ्गारवदात्मभावमाश्रितमप्याश्वेवापादयति । स्नानानुलेपनधूपप्रघर्षवासमाल्यादिभिरपि न शक्यमशुचित्वमपहतुमस्य । सम्यग्दर्शनादि पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी शुद्धिमाविर्भावयतीति तत्त्वतो भावनमशुचित्वानुप्रेक्षा। एवं ह्यस्य मैं हो हूँ, न कोई मेरा स्व है और न पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन व्याधि, जरा और मरण आदि दु:खोंको दूर नहीं करता। बन्धु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते । धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदा काल सहायक है।' इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इस जीवके स्वजनोंमें प्रीतिका अनुबन्ध नहीं होता और परजनोंमें द्वषका अनुबन्ध नहीं होता, इसलिए नि:संगताको प्राप्त होकर मोक्षके लिए ही प्रयत्न करता है। 8803. शरीरसे अन्यत्वका चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है-यथा बन्धके प्रति अभेद होनेपर भी लक्षणके भेदसे 'मैं' अन्य हूँ। शरीर ऐन्द्रियिक है, मैं अतीन्द्रिय हूं। शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ। शरीर आदि-अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ। संसारमें परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये । उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ। इस प्रकार शरीरसे भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स ! मैं बाह्य पदार्थोंसे भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? इस प्रकार मनको समाधान युक्त करनेवाले शरीरादिकमें स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञानकी भावनापूर्वक वैराग्यका प्रकर्ष होनेपर आत्यन्तिक मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है। 804. यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थोंका योनि है। शुक्र और शोणितरूप अशुचि पदार्थोंसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है, शौचगृहके समान अशुचि पदार्थोंका भाजन है। त्वचामात्रसे आच्छादित है। अति दुर्गन्ध रसको बहानेवाला झरना है । अंगारके समान अपने आश्रयमें आये हुए पदार्थको भी शीघ्र ही नष्ट करता है । स्नान, अनुलेपन, धूपका मालिश और सुगन्धिमाला आदिके द्वारा भी इसकी अशुचिताको दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदिक जीवकी आत्यन्तिक शुद्धिको प्रकट करते हैं । इस प्रकार वास्तविकरूपसे चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करनेवाले इसके शरीरसे निर्वेद 1. जायेऽहम् । एक ता.। 2. स्मशानात् नाति-- ता.। 3.-मनिन्द्रियो मु., दि. 1, दि. 2, ता.। 4. --स्याप्तिर्भ- मु.। 5. --न्ताशुचिशुक्रशोणितयोन्यशुचिसं- मु.। --न्ताशुचिपूतिशुक्रमोणितसं -दि. 1। -ताशुचिशुक्रशोणितसं-- दि. 2 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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