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296] सर्वार्थसिद्धौ
[814 8737$ 737. तत्राद्यस्य प्रकृतिबन्धस्य भेदप्रदर्शनार्थमाहआद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥4॥
8738. आद्यः प्रकृतिबन्धो ज्ञानावरणाद्यष्टविकल्पो वेदितव्यः । आवृणोत्यावियतेऽनेनेति वा आवरणम् । तत्प्रत्येकमभिसंबध्यते-ज्ञानावरणं दर्शनावरणमिति । वेदयति वेद्यत इति वा वेदनीयम । मोहयति मोहयतेऽनेनेति वा मोहनीयम् । एत्यनेन नारकादिभवमित्यायुः । नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम । उच्चै!चैश्च गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम्। दातदेयादीनामन्तरं मध्यमेतीत्यन्तरायः । एकेनात्मपरिणामेनादीयमानाः पुद्गला ज्ञानावरणानेकभेदं प्रतिपद्यन्ते सकृ दुपभुक्तान्नपरिसरुधिरादिवत् ।। होता है। इसका अर्थ है कि जहाँ योग और कषाय नहीं है वहाँ कर्मबन्ध भी नहीं है । कषाय दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है । ग्यारहवें गुणस्थानमें जीव कषायरूपसे परिणत नहीं होता और बारहवे गुणस्थानमें उसका उच्छेद अर्थात् अभाव है, इसलिए इस जीवके स्थितिबन्ध और अनुभागवन्ध दसवें गुणस्थान तक ही होता है । आगे ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें यद्यपि सातावेदनीयका बन्ध होता है पर वहाँ कषाय न होनेसे उसका प्रकृति और प्रदेशबन्ध ही होता है । यहाँ प्रश्न होता है कि यदि इन गुणस्थानोंमें सातावेदनीयका बिना स्थितिके बन्ध होता है तो उसका आत्माके साथ अवस्थान कैसे होगा और यदि बिना अनुभागसे बन्ध होता है तो उसका विपाक सातारूप कैसे होगा? समाधान यह है कि इन गुणस्थानोंमें ईर्यापथ आस्रव होनेसे कर्म आते हैं और चले जाते हैं। उनका दो, तीन आदि समय तक अवस्थान नहीं होता। इसलिए तो यहाँ स्थितिबन्धका निषेध किया है और अनुभाग भी कषायके निमित्तसे प्राप्त होने वाले अनुभागसे यहाँ प्राप्त होनेवाला अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है, इसलिए यहाँ कषायके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले अनुभागबन्धका भी निषेध किया है। योग तेरहवें और कषाय दसवें गणस्थान तक होता है, इसलिए स्थिति और अनुभागबन्ध दसवें तक और प्रकृतिबन्ध और प्रदेशवन्ध तेरहवें होते हैं । अयोगिकेवली गुणस्थानमें योगका अभाव है इसलिए वहाँ किसी प्रकारका भी बन्ध नहीं होता । इस प्रकार यहाँ बन्धके भेद और उनके कारणोंका विचार किया।
8737. अब प्रकृतिवन्धके भेद दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
पहला अर्थात् प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप है ॥4॥
6738. आदिका प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरणादि आठ प्रकारका जानना चाहिए । जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है। वह प्रत्येकके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता है यथा-ज्ञानावरण और दर्शनावरण । जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदा जाता है वह वेदनीय कर्म है । जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है। जिसके द्वारा नारक आदि भवको जाता है वह आयुकर्म है। जो आत्माको नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमता है वह नामकर्म है। जिसके द्वारा जीव उच्च नीच गूयते अर्थात् कहा जाता है वह गोत्र कर्म है । जो दाता और देय आदिका अन्तर करता है अर्थात् बीच में आता है वह गोत्र कर्म है । एक बार खाये गये अन्नका जिस प्रकार रस, रुधिर आदि रूपसे अनेक प्रकारका परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्म-परिणामके द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरण आदि अनेक भेदोंको प्राप्त होते हैं। 1. मुह्यते इति मु । 2. -दुपयुक्ता- आ., दि. 1, दि. 2 ता., ना. ।
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