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सर्वार्थसिद्धौ
[914 $ 792भस्मांगारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोऽभ्युदयकर्मक्षयहेतुरित्यत्र को विरोधः । $ 792. संवरहेतु'ष्वादावुद्दिष्टाया गुप्तेः स्वरूपप्रतिपत्त्यर्थमाह
सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥4॥ 8 793. योगो व्याख्यातः 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इत्यत्र । तस्य स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनं निग्रहः। विषयसुखाभिलाषार्थ प्रवृत्तिनिषेधार्थं सम्यग्विशेषणम् । तस्मात् सम्यग्विशेषणविशिष्टात् संक्लेशाप्रादुर्भावपरात्कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्तं कर्म नास्रवतीति संवरप्रसिद्धिरवगन्तव्या । सा त्रितयी कायगुप्तिर्वाग्गुप्तिर्मनोगुप्तिरिति । 8794. तत्राशक्तस्य मुनेनिरवद्यप्रवृत्तिख्यापनार्थमाह
ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ।।5।। 8795. 'सम्यग्' इत्यनुवर्तते । तेनेर्यादयो विशेष्यन्ते । सम्यगीर्या सम्यग्भाषा सम्यगेषणा सम्यगादाननिक्षेपौ सम्यगुत्सर्ग इति । सा एताः पञ्च समितयो विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेः प्राणिपोडापरिहाराभ्युपाया वेदितव्याः। तथा प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकर्मास्रवात्संवरो भवति।
$ 796. तृतीयस्य संवरहेतोर्धर्मस्य भेदप्रतिपत्त्यर्थमाहउपलब्ध होते हैं वैसे ही तप अभ्युदय और कर्मक्षय इन दोनोंका हेतु है ऐसा होने में क्या विरोध है।
8792. गुप्तिका संवरके हेतुओंके प्रारम्भमें निर्देश किया है, अत: उसके स्वरूपका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
योगोंका सम्यक् प्रकारसे निग्रह करना गुप्ति है ॥4॥
$ 793. 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' इस सूत्र में योगका व्याख्यान कर आये हैं। उसकी स्वच्छन्द प्रवृत्ति का बन्द होना निग्रह है। विषय-सुखकी अभिलाषाके लिए की जानेवाली प्रवृत्तिका निषेध करनेसे लिए 'सम्यक्' विशेषण दिया है। इस सम्यक् विशेषण युक्त संक्लेशको नहीं उत्पन्न होने देनेरूप योगनिग्रहसे कायादि योगोंका निरोध होने पर तन्निमित्तक कर्म आस्रव नहीं होता है, इसलिए संवरकी प्रसिद्धि जान लेना चाहिए। वह गुप्ति तीन प्रकारकी है—कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति।।
8794. अब गुप्तिके पालन करने में अशक्त मुनिके निर्दोष प्रवृत्तिकी प्रसिद्धिके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं ॥5॥
8795. यहाँ 'सम्यक्' इस पदकी अनुवृत्ति होती हैं। उससे ईर्यादिक विशेष्यपनेको प्राप्त होते हैं-सम्यगीर्या, सम्यग्भाषा, सम्यगेषणा, सम्यगादाननिक्षेप और सम्यगुत्सर्ग। इस प्रकार कही गयी ये पाँच समितियाँ जीवस्थानादि विधिको जाननेवाले मुनिके प्राणियोंकी पीडाको दूर करनेके उपाय जानने चाहिए। इस प्रकारसे प्रवृत्ति करनेवालेके असंयमरूप परिणामोंके निमित्तसे जो कर्मोंका आस्रव होता है उसका संवर होता है।
8796. तीसरा संवरका हेतु धर्म है। उसके भेदोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1. --हेतुत्वादा--! 2. --षार्थवृत्तिनियमनार्थं सम्य- ता. ना.। 3. इति वर्तते ता.।
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