________________
310] सर्वार्थसिद्धौ
[81178765765. 'सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः' इत्यनुवर्तते। इयमप्युत्कृष्टा स्थितिमिथ्यादृष्टः संज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकस्य । इतरेषां यथागममवयोव्या। 8766. अथायुषः कोत्कृष्टा स्थितिरित्युच्यते
त्रस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥17॥ 767. पुनः 'सागरोपम'ग्रहणं कोटीकोटीनिवृत्त्यर्थम् । 'परा स्थितिः' इत्यनुवर्तते । इयमपि पूर्वोक्तस्यैव । शेषाणामागमतोऽवसेया।
६768. उक्तोत्कृष्टा स्थितिः । इदानों जघन्या स्थितिर्वक्तव्या। तत्र समानजघन्यस्थितीः पंच प्रकृतीरवस्थाप्य तिसृणां जघन्यस्थितिप्रतिपत्त्यर्थ सूत्रद्वयमुपन्यस्यते लध्वर्थम्--
अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥18॥ 8769. अपरा जघन्या इत्यर्थः । वेदनीयस्य द्वादश मुहूर्ताः।
नामगोत्रयोरष्टौ ॥19॥ 8770. 'मुहूर्ता' इत्यनुवर्तते । 'अपरा स्थितिः' इति च । 8771. अवस्थापितप्रकृतिजघन्यस्थितिप्रतिपादनार्थमाह
8765. 'सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः' पदकी अनुवृत्ति होती है । यह भी उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके जानना चाहिए। इतर जीवोंके आगमके अनुसार जान लेना चाहिए।
8766. अब आयु कर्मको उत्कृष्ट स्थिति क्या है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
आयुकी उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम है ॥17॥
8767. इस सूत्र में पुन: 'सागरोपम' पदका ग्रहण कोटाकोटी पदकी निवृत्तिके लिए दिया है । यहाँ 'परा स्थिति:' पदकी अनुवृत्ति होती है। यह भी पूर्वोक्त जीवके होती है। शेष जीवोंके आगमसे जान लेना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ टीकामें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टि कहा है । सो यह इस अभिप्रायसे कहा है कि मिथ्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव भी नरकायु बन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंके होने पर नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि अन्य गुणस्थानवालेके आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता। देवायुका तैंतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सकल संयमके धारी सम्यग्दृष्टिके ही होता है। पर टीकाकारने यहाँ उसके कहनेकी विवक्षा नहीं की।
6768. उत्कृष्ट स्थिति कही । अब जघन्य स्थिति कहनी चाहिए। उसमें समान जघन्य स्थितिवाली पाँच प्रकृतियोंको स्थगित करके थोड़े में कहनेके अभिप्रायसे तीन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका ज्ञान करानेके लिए दो सूत्र कहते हैं
वेदनीय को जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है ॥18॥ 8769. अपरा अर्थात् जघन्य । यह वेदनीयकी बारह मुहूर्त है। नाम और गोत्रकी जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है ॥19॥ 8770. यहाँ 'मुहूर्ता' पदकी अनुवृत्ति होती है और 'अपरा स्थिति: पदकी भी।
8771. अब स्थगित की गयी प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org