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अष्टमोऽध्यायः
शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥20॥
8772. शेषाणां पञ्चानां प्रकृतीनामन्तर्मुहूर्तापरा स्थितिः । ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां जघन्या स्थितिः सूक्ष्मसांपराये, मोहनीयस्य अनिवृत्तिबादरसांपराये | आयुषः संख्ये यवर्षायुष्षु' तिर्यक्षु मनुष्येषु च ।
8773. आह, उभयी स्थितिरभिहिता । ज्ञानावरणादीनाम् अथानुभवः किंलक्षण इत्यत
-8121 § 775]
आह
विपाकोऽनुभवः ॥21॥
8774. विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाकः । पूर्वोक्तकषायतीव्रमन्दादिभावात्रवविशेषाद्विशिष्टः पाको विपाकः । अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभवभावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूपयो नानाविधः पाको विपाकः । असावनुभव इत्याख्यायते । शुभपरिणामानां प्रकर्ष भावाच्छ भप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः अशुभप्रकृतीनां निकृष्टः । अशुभपरिणामानां प्रकर्षभावादशुभप्रकृतीनां प्रकृष्टोऽनुभवः शुभप्रकृतीनां निकृष्टः । स एवं प्रत्ययवशादुपात्तोऽनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः । उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति आयुर्दर्शनचारित्रमोहवर्जानाम् । न हि नरकायुर्मुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते । नापि दर्शनमोहरचारित्रमोहमुखेन, चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन ।
$ 775. आह अभ्युपेमः प्रागुपचितनानाप्रकारकर्मविपाकोऽनुभवः । इदं तु न विजानीमः
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बाकी पांच कर्मोकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है ॥20॥
8772. शेष पाँच प्रकृतियोंकी अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थिति है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकी जघन्य स्थिति सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में मोहनीयकी जघन्य स्थिति अनिवृत्ति बादरसाम्पराय गुणस्थानमें और आयुकी जघन्य स्थिति संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों और मनुष्यों में प्राप्त होती है ।
$ 773. दोनों प्रकारकी स्थिति कही । अब ज्ञानावरणादिकके अनुभवका क्या स्वरूप है इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं
विपाक अर्थात् विविध प्रकारके फल देनेकी शक्तिका पड़ना ही अनुभव है ॥21॥
8774. विशिष्ट या नाना प्रकारके पाकका नाम विपाक है। पूर्वोक्त कषायके तीव्र, मन्द आदिरूप भावास्रवके भेदसे विशिष्ट पाकका होना विपाक | अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावलक्षण निमित्तभेदसे उत्पन्न हुआ वैश्वरूप नाना प्रकारका पाक विपाक है। इसी को अनुभव कहते हैं । शुभ परिमाणोंके प्रकर्षभाव के कारण शुभ प्रकृतियोंका प्रकृष्ट अनुभव होता है और अशुभ प्रकृतियोंका निकृष्ट अनुभव होता है । तथा अशुभ परिणामोंके प्रकर्षभावके कारण अशुभ प्रकृतियोंका प्रकृष्ट अनुभव होता है और शुभ प्रकृतियोंका निकृष्ट अनुभव होता है । इस प्रकार कारणवशसे प्राप्त हुआ वह अनुभव दो प्रकारसे प्रवृत्त होता है-स्वमुखऔर परमुखसे । सब मूल प्रकृतियोंका अनुभव स्वमुखसे ही प्रवृत होता है। आयु, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके सिवा तुल्यजातीय उत्तरप्रकृतियोंका अनुभव परमुखसे भी प्रवृत्त होता है। नरकायुके मुखसे तिर्यंचायु या मनुष्यायुका विपाक नहीं होता । और दर्शनमोह चारित्रमोहरूपसे और चारित्रमोह दर्शनमोहरूपसे विपाकको नहीं प्राप्त होता ।
8775. शंका- पहले संचित हुए नाना प्रकारके कर्मोंका विपाक अनुभव है यह हम 1. - पुष्कति-- मु. 1
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