Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 438
________________ साथ नवमोऽध्यायः $ 784. बन्धपदार्थो निर्दिष्ट: । इदानी तदनन्तरोद्देशभाजः संवरस्य निर्देशः प्राप्तकाल इत्यत इदमाह आस्रवनिरोधः संवरः ॥1॥ 8785. अभिनवकर्मादानहेतुरास्रवो व्याख्यातः । तस्य निरोधः संवर इत्युच्यते। स द्विविधो भावसंवरो द्रव्यसंवरश्चेति । तत्र संसारनिमित्तक्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः। तन्निरोधे तत्पूर्वकर्मपुदगलादानविच्छेदो द्रव्यसंवरः ।। 8786. इदं विचार्यते--कस्मिन् गुणस्थाने कस्य संवर इति ? अत्र उच्यते--मिथ्यादर्शनकर्मोदयवशीकृत आत्मा मिथ्यावृष्टिः । तत्र मिथ्यादर्शनप्राधान्येन यत्कर्म आस्रवति सग्निरोधाच्छेषे सासादनसम्यग्दृष्ट्यादौ तत्संवरो भवति । कि पुनस्तत् ? भिय्यात्वनपुसकवेदनरकायुर्नरकगत्येकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिहुण्डसंस्थानासंप्राप्तासृपाटिकासंहनननरकगतिप्रायोग्यानुपूर्ध्यातपस्थावरसूक्ष्मापर्याप्तकसाधारणशरीरसंज्ञकषोडशप्रकृतिलक्षणम् । 8787. असंयमस्त्रिविधः; अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानोदयविकल्पात् । तत्प्रत्ययस्य कर्मणस्तदभावे संवरोवसे यः। तद्यथा--निदानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानगृध्यनन्तानुबन्धिकोधमानमायालोभस्त्रीवेदतिर्यगायुस्तिर्यग्गतिचतुःसंस्थानचतुःसंहननतिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्योद्यो 8784. बन्ध पदार्थका निर्देश किया। इस समय उसके बाद कहने योग्य संवर पदार्थके निर्देशका समय आ गया है, इसलिए यह सूत्र कहते हैं--- आस्रवका निरोध संवर है॥॥ 8785. नतन कर्म के ग्रहणमें हेतुरूप आत्रकका व्याख्यान किया। उसका निरोध होना संवर है । वह दो प्रकारका है--भाव संवर और द्रव्य संबर। संसारकी निमित्तभूत कियाकी निवृत्ति होना भावसंवर है और इसका (संगारकी निमित्तभूत क्रियाका) निरोध होनेपर तत्पूर्वक होनेवाले कर्म-पूदगलोंके ग्रहणका विच्छेद होना द्रव्यसंवर है। 8786. अब इस वानका विचार करना है कि किस गुणस्थानमें किस कर्मप्रकृतिका संवर होता है, इसलिए इसी बातको आगे कहते हैं --जो आत्मा मिथ्यादर्शन कर्मके उदयके आधीन है वह मिथ्यादृष्टि है। इसके मिथ्यादर्शनकी प्रधानतासे जिस कर्मका आस्रव होता है उसका मिथ्या दर्शनके अभावमें शेष रहे सासादनसम्यग्दृष्टि आदिमें संवर होता है । वह कर्म कौन है ? मिथ्यात्व, नपुसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, डीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्नक और साधारणशरीर यह सोलह प्रकृतिरूप कर्म हैं। 8787. असंयमके तीन भेद हैं--अनन्तानवन्धीका उदय, अप्रत्याख्यानावरणका उदय और प्रत्याख्यानावरणका उदय । इसलिए इसके निमित्तसे जिस कर्मका आस्रव होता है उसका इसके अभावमें संबर जानना चाहिए । यथा--अनन्तानबन्धी कषायके उदयसे होनेवाले असंयमकी मुख्यतासे आस्रवको प्राप्त होनेवाली निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, 1 तनिरोधेन तत्पू-- ता., ना.। 2. इति । उच्य-- मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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