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-811 § 787]
ता प्रशस्त विहायोगतिदुभंगदुः स्वरानादेयनीचैर्गोत्रसंज्ञिकानां पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तानुबन्धिकषायोदयकृतासंयम प्रधानास्रवाणामेकेन्द्रियादयः सासादनसम्यग्दृष्टचन्ता बन्धकाः । तदभावे तासामुत्तरत्र संवरः । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधमानमायालोभमनुष्यायुर्मनुष्यगत्यौदारिकशरीरतनङ्गोपाङ्ग वर्षभनाराचसंहननमनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम्नां दशानां प्रकृतीनामप्रत्याख्यानकषायोदयकृता संयम हे दुकानामेकेन्द्रियादयोऽसंयतसम्यग्दृष्ट यन्ता बंधकाः । तदभावादूर्ध्वं तासां संवरः । सम्यङ् मिथ्यात्वगुणेनायुर्न बध्यते । प्रत्याख्यानावरण क्रोधमानमायालोभानां चतसृणां प्रकृतीनां प्रत्याख्यान कषायोदयकारणासंयमास्त्रवाणामेकेन्द्रियप्रभृतयः संयतासंयतावसाना बन्धकाः । तदभावादुपरिष्टात्तासां संवरः । प्रमादोपनीतस्य तदभावे निरोधः । प्रमादेनोपनीतस्य कर्मणः प्रमत्त
दूध्वं तदभावान्निरोधः प्रत्येतव्यः । किं पुनस्तत् । असद्वेद्यारतिशोकास्थिराशुभायशः कीर्ति★ विकल्पम् । देवायुर्बन्धारम्भस्य प्रमाद एव हेतुरप्रमादोऽपि तत्प्रत्यासन्नः । तदूर्ध्वं तस्य संवरः । कषाय एवास्रवो यस्य कर्मणो न प्रमादादिः तस्य तन्निरोधे निरासोऽवसेयः । स च कषायः प्रमादादिविरहितस्तीव्र मध्यमजघन्यभावेन त्रिषु गुणस्थानेषु व्यवस्थितः । तत्रापूर्वकरणस्यादौ संख्येयभागे द्वे कर्मप्रकृती निद्राप्रचले बध्येते । तत ऊर्ध्वं संख्येयभागे त्रिंशत् प्रकृतयो देवगतिपञ्चेन्द्रियजातिवैऋियिकाहारकतै जसकार्मणशरीरसमचतुरस्त्रसंस्थानवैक्रियिकाहारकशरीरांगोपांगवर्णगंधरसस्पर्श
नवमोऽध्यायः
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तिर्यंचगति, मध्यके चार संस्थान, मध्यके चार संहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन पच्चीस प्रकृतियोंका एकेन्द्रियसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव बन्ध करते हैं, अतः अनन्तानुबन्धीके उदयसे होनेवाले असंयमके अभाव में आगे इनका संवर होता है । अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमकी मुख्यतासे आस्रवको प्राप्त होनेवाली अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण लोभ; मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी इन दश प्रकृतियों का एकेन्द्रियोंसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके जीव बन्ध करते हैं, अत: अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमका अभाव होनेपर आगे इनका संवर होता है । सम्यग्मिथ्यात्व गुणके होनेपर आयुकर्मका बन्ध नहीं होता यहाँ इतनी विशेष बात है । प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमसे आस्रवको प्राप्त होनेवाली प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंका एकेन्द्रियोंसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के जीव बन्ध करते हैं, अतः प्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे होनेवाले असंयमके अभाव में आगे इनका संवर होता है । प्रमादके निमित्तसे आस्रवको प्राप्त होनेवाले कर्मका उसके अभाव में संवर होता है । जो कर्म प्रमाद के निमित्तसे आस्रवको प्राप्त होता है उसका प्रमत्तसंयत गुणस्थानके "आगे प्रमाद न रहनेके कारण संवर जानना चाहिए। वह कर्म कौन है ? असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्तिरूप प्रकृतियोंके भेदसे वह कर्म छह प्रकारका है । देवायुके बन्धका आरम्भ प्रमादहेतुक भी होता है और उसके नजदीकका अप्रमादहेतुक भी, अतः इसका अभाव होनेपर आगे उसका संवर जानना चाहिए। जिस कर्मका मात्र कषायके निमित्तसे आस्रव होता है प्रमादादिकके निमित्तसे नहीं उसका कषायका अभाव होनेपर संवर जानना चाहिए । प्रमादादिकके अभाव में होनेवाला वह कषाय तीव्र, मध्यम और जघन्यरूपसे तीन गुणस्थानों में अवस्थित है । उनमेंसे अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रारम्भिक संख्येय भागमें निद्रा और प्रचला ये दो कर्मप्रकृतियाँ बन्धको प्राप्त होती हैं। इससे आगे संख्येय भागमें देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शासेर कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान,
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