Book Title: Sarvarthasiddhi
Author(s): Devnandi Maharaj, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 436
________________ 316] सर्वार्थसिद्धौ [8125 83818781. आह; बन्धपदार्थान्तरं पुण्यपापोपसंख्यानं चोदितं तद्बन्धेऽन्तर्भूतमिति प्रत्याख्यातम् । तत्रेदं वक्तव्यं कोऽत्र पुण्यबन्धः कः पापबन्ध इति। तत्र 'पुण्यप्रकृतिपरिगणनार्थमिदमारभ्यते __ सद्वद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥25॥ 8782. शुभं प्रशस्तमिति यावत् । तदुत्तरैः प्रत्येकमभिसंबध्यते शुभमायुः शुभं नाम शुभं गोत्रमिति । शुभायुस्त्रितयं तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्देवायुरिति । शुभनाम सप्तत्रिशद्विकल्पम् । तद्यथामनुष्यगतिर्देवगतिः पंचेन्द्रियजाति पंच शरीराणि त्रीण्यङ्गोपाङ्गानि समचतुरस्रसंस्थानं वज्रर्षभनाराचसंहननं प्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शा मनुष्यदेवगत्यानुपूर्व्यद्वयमगुरुलघुपरघातोच्छ्वासातपोद्योतप्रशस्तविहायोगतयस्त्रसबादरपर्याप्तिप्रत्येकशरीरस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशःकीर्तयो निर्माणं तीर्थकरनाम चेति । शुभमेकमुच्चैर्गोत्रं, सद्वैद्यमिति । एता द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतयः 'पुण्य' संज्ञाः। विशेषार्थ-इस सूत्रमें प्रदेशबन्धका विचार किया गया है। जो पुद्गल परमाणु कर्मरूपसे ग्रहण किये जाते हैं वे ज्ञानावरण आदि आठ या सात प्रकारसे परिणमन करते हैं । उनका ग्रहण संसार अवस्थामें सदा होता रहता है। ग्रहणका मुख्य कारण योग हैं । वे सूक्ष्म होते हैं। जिस क्षेत्र में आत्मा स्थित होता है उसी क्षेत्रके कर्मपरमाणओंका ग्रहण होता है. अन्यका नई भी स्थित कर्मपरमाणुओंका ही ग्रहण होता है, अन्यका नहीं । ग्रहण किये गये कर्मपरमाणु आत्माके सब प्रदेशों में स्थित रहते हैं और वे अनन्तानन्त होते हैं यह इस सूत्रका भाव है । इससे प्रदेशवन्धकी सामान्य रूपरेखा और उसके कारणका ज्ञान हो जाता है। 8781. बन्ध पदार्थके अनन्तर पुण्य और पापकी गणना की है और उसका बन्धमें अन्तर्भाव किया है, इसलिए यहाँ यह बतलाना चाहिए कि पुण्यबन्ध क्या है और पापबन्ध क्या है। उसमें सर्वप्रथम पूण्य प्रकृतियोंको परिगणना करने के लिए यह सत्र आरम्भ करते हैं साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्यरूप हैं ।।2511 8782. शुभका अर्थ प्रशस्त है । यह आगेके प्रत्येक पदके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता है । यथा-शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र । शुभ आयु तीन हैं-तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । शुभ नामके सैंतीस भेद हैं । यथा--मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त रस, प्रशस्त गन्ध और प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और देवगत्यानुपूर्वी ये दो, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप. उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त. प्रत्येकशरीर. स्थिर. शभ. सभग. सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर । एक उच्च गोत्र शुभ है और सातावेदनीय ये वयालीस प्रकृतियाँ पुण्यसंज्ञक हैं। विशेषार्थ-यहाँ बयालीस पुण्य प्रकृतियाँ गिनायी हैं। प्रशस्त परिणामोंसे जिनमें अधिक अनुभाग प्राप्त होता है वे पुण्य प्रकृतियां हैं। यह लक्षण इन प्रकृतियोंमें घटित होता है इसलिए ये पुण्य प्रकृतियाँ मानी गयी हैं । बन्धकी अपेक्षा कुल प्रकृतियाँ 120 परिगणित की जाती हैं। इसी अपेक्षासे यहाँ बयालीस संख्या निर्दिष्ट की गयी है। यहाँ वर्णादिकके अवान्तर भेद बीस न गिना कर कुल चार भेद गिनाये हैं । तत्त्वार्थभाष्यकार आचार्य गृद्ध पिच्छने सम्यक्त्वप्रकृति, हास्य रति और पुरुषवेद इन चारकी भी पुण्यप्रकृतियोंमें परिगणना की है। तथा वीरसेन स्वामीने जयधवला टीकामें भी इन्हें पुण्यप्रकृतियाँ सिद्ध किया है। इस प्रकार कुल पुण्यप्रकृतियाँ कितनी हैं इसका निर्देश किया। 1. पुण्यबन्धप्रक- मु.।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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