________________
3121 सर्वार्थसिद्धौ
[8122 8776किमयं प्रसंख्यातोऽप्रसंख्यातः ? इत्यत्रोच्यते प्रसंख्यातोऽनुभूयत इति ब्रू महे । कुतः ? यतः
स यथानाम ।।220 8776. ज्ञानावरणस्य फलं ज्ञानाभावो दर्शनावरणस्यापि फलं दर्शनशक्त्युपरोध इत्येवमाद्यन्वर्थसंज्ञानिर्देशात्सर्वासां कर्मप्रकृतीनां सविकल्पानामनुभवसंप्रत्ययो जायते ।
8777. आह, यदि विपाकोऽनुभवः प्रतिज्ञायते, तत्कर्मानुभूतं सत् किमाभरणवदतिष्ठते आहोस्विन्निष्पीतसारं प्रच्यवते ? इत्यत्रोच्यते ----
ततश्च निर्जरा ॥23॥ 8778. पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाभ्यवहृतौदनादिविकारवत्पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात्कर्मणो निवृत्तिनिर्जरा । सा द्विप्रकारा--विपाकजा इतरा च । तत्र चतुर्गतावनेकजातिविशेषावधूणिते संसारमहार्णवे चिरं परिभ्रमतः शुभाशुभस्य कर्मणः क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा । यत्कर्माप्राप्तविपाककालमोपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदोर्योदयावलि प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा । 'च'शब्दो निमित्तान्तरसमुच्चयार्थः । 'तपसा निर्जरा
स्वीकार करते हैं किन्तु यह नहीं जानते कि क्या यह प्रसंख्यात होता है या अप्रसंख्यात होता है ? समाधान हम कहते हैं कि यह प्रसंख्यात अनुभवमें आता है। शंका-किस कारणसे । समाधान-यत:
वह जि. कर्मका जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है ।।220
8776. ज्ञानावरणका फल ज्ञानका अभाव करना है । दर्शनावरणका भी फल दर्शनशक्तिका उपरोध करना है इत्यादि रूपसे सब कर्मों की सार्थक संज्ञाका निर्देश किया है अतएव अपने अवान्तर भेदसहित उनमें किसका क्या अनुभव है इसका ज्ञान हो जाता है।
8777. यदि विपाकका नाम अनुभव है ऐसा स्वीकार करते हो तो अनुभूत होने पर वह कर्म आभरणके समान अवस्थित रहता है या फल भोग लेनेके बाद वह झर जाता है ? इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं--- - इसके बाद निर्जरा होती है ॥23॥
8778. जिस प्रकार भात आदिका मल निवृत्त होकर निर्जीण हो जाता है उसी प्रकार आत्माको भला-बुरा फल देकर पूर्व प्राप्त स्थितिका नाश हो जानेसे स्थिति न रहनेके कारण कर्मको निवृत्तिका होना निर्जरा है। वह दो प्रकारकी है-विपाकजा और अविपाकजा। उसमें अनेक जाति विशेषरूपी भंवर युक्त चार गतिरूपी संसार महासमुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करनेवाले इस जीवके क्रमसे परिपाक कालको प्राप्त हुए और अनुभवोदयावलिरूपी सोतेमें प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्मका फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। तथा आम और पनस को औपक्रमिक क्रियाविशेषके द्वारा जिस प्रकार अकालमें पका लेते हैं उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है फिर भी औपक्रमिक क्रियाविशेषकी सामर्थ्यसे उदयावलिके बाहर स्थित जो कर्म बलपूर्वक उदीरणाद्वारा उदयावलिमें प्रविष्ट कराके अनुभवा जाता है वह अविपाकजा निर्जरा है। सूत्रमें 'च' शब्द अन्य निमित्तका समुच्चय करनेके लिए दिया है। 'तपसा निर्जरा च' यह आगे कहेंगे, इसलिए 'च' शब्दके देनेका यह प्रयोजन है कि पूर्वोक्त प्रकारसे निर्जरा होती है और अन्य प्रकारसे भी। शंका-यहाँ निर्जराका उल्लेख 1. --णस्य फलं मु.। 2. भूतं किमा -मु.। 3. --गणिते आ., दि. 1, दि. 2 ।
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org