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सर्वार्थसिद्धौ
$ 758. अष्टम्याः कर्मप्रकृतेरुत्तरप्रकृतिनिर्देशार्थमाह
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥13॥
8759. अन्तरायापेक्षया भेदनिर्देशः क्रियते – दानस्यान्तरायो लाभस्यान्तराय इत्यादि । दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्तद्व्यपदेशः । यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते, उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्साहितुकामोऽपि नोत्सहते त एते पञ्चान्तरायस्य भेदाः ।
8760. व्याख्याताः प्रकृतिबन्धविकल्पाः । इदानीं स्थितिबन्धविकल्पो वक्तव्यः । सा स्थितिद्विविधा उत्कृष्टा जघन्या च । तत्र यासां कर्मप्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः समाना तन्निर्देशार्थमुच्यते
विशेषार्थ - ऐसा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है कि जिसके उच्चगोत्र का उदय होता है वह ऐसे माता पिता के यहाँ जन्म लेता है जहाँ सदाचारकी प्रवृत्ति हो या उस ओर झुकाव हो या ऐसी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियोंके साथ सम्पर्क हो । और जिसके नीचगोत्र कर्मका उदय होता है वह विरुद्ध प्रवृत्तिवाले माता पिताके यहाँ जन्म लेता है। कुल, गोत्र, सन्तान और परम्परा इनका एक अर्थ है । परम्परा दो प्रकारसे चलती है एक पुत्र, पौत्र, प्रपौत्रमूलक परम्परा और दूसरी आचार-विचारमूलक परम्परा । यहाँ दूसरी प्रकारकी परम्परा ली गयी है । गोत्रका सम्बन्ध शरीर या रक्तसे न होकर जीवके आचार-विचारसे है । गोत्रकर्मको जीवविपाकी कहनेका कारण भी यही है । इस प्रकार गोत्रकर्म, उसके भेद और उनके स्वरूपका संक्षेपमें विचार किया ।
8758. आठवीं कर्म प्रकृतिको उत्तर प्रकृतियोंका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र
कहते हैं
[8113 § 758
दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनके पाँच अन्तराय हैं ॥13॥
8759. यहाँ अन्तरायकी अपेक्षा भेदनिर्देश किया है। यथा-दानका अन्तराय, लाभका अन्तराय इत्यादि । इन्हें दानादि परिणामके व्याघातका कारण होनेसे यह संज्ञा मिली है । जिनके उदयसे देनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करनेकी इच्छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्त करता है, भोगनेकी इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, उपभोग करनेकी इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं ले सकता है और उत्साहित होनेकी इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है इस प्रकार ये पाँच अन्तरायके भेद हैं ।
विशेषार्थं जीवकी दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ हैं । अन्तरायकर्म इन पाँच जीवभावोंकी अभिव्यक्ति में बाधक कारण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कहीं-कहीं अन्तराय कर्मके क्षय व क्षयोपशमका फल बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति कहा गया है पर वह उपचार कथन है । तत्त्वतः बाह्य सामग्री पर है । उसकी प्राप्ति जीवविपाकी अन्तराय कर्मके क्षय व क्षयोपशमका फल कहना उपचारकथन है । परमें स्वका भाव मिथ्यात्वका फल है और उसका स्वीकार कषायका फल है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
8760. प्रकृतिबन्धके भेद कहे। इस समय स्थितिबन्धके भेद कहने चाहिए। वह स्थिति दो प्रकारकी है— उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति । उनमें जिन कर्मप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति समान है उनका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
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