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-81118755] अष्टमोऽध्यायः
[303 $ 752. मोहनीयानन्तरोदेशभाज आयुष उत्तरप्रकृतिनिपिनार्थमाह
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि ॥10॥ $ 753. नारकादिषु भवसंबन्धेनायुषो व्यपदेश: क्रियते । नरकेषु भवं नारकमायुः, तिर्यग्योनिषु भवं तैर्यग्योनम्, मानुषेषु भवं मानुषम्, देवेषु भव दैवमिति । नरकेषु तीब्रशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवन तन्नारकम् । एवं शेषेष्वपि ।
$ 754. आयुश्चतुर्विषं व्याख्यातम् । तदनन्तरमुद्दिष्टं यन्नामकर्म तदुत्तरप्रकृतिनिर्णयार्थमाह
गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरादेययशःकीतिसेतराणि तीर्थकरत्वं च ।
8755. यदुदयादात्मा भवान्तरं गच्छति सा गतिः । सा चतुर्विधा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिमनुष्यगतिर्देव'गतिश्चेति । यन्निमित्त आत्मनो नारको भावस्तन्नरकगतिनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् । तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येनैकीकृतोऽर्थात्मा जातिः। तन्निमित्तं जाति
8752. मोहनीयके अनन्तर उद्देशभाक आयु कर्मको उत्तर प्रकृतियोंका विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
नरकायु, तियंचायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार आयु हैं॥10॥
8753. नारक आदि गतियोंमें भवके सम्बन्धसे आयुकर्मका नामकरण किया जाता है। यथा-नरकोंमें होनेवाली नारक आयु है, तिर्यग्योनिवालोमें होनेवाली तैर्यग्योन आयु है, मनुष्योंमें होनेवाली मानुष आयु है और देवोंमें होनेवाली देवायु है। तीव्र शीत और उष्ण वेदनावाले नरकोंमें जिसके निमित्तसे दीर्घ जीवन होता है वह नारक आयु है। इसी प्रकार शेष आयुओंमें भी जानना चाहिए।
विशेषार्थ---दस प्राणोंमें आयु प्राण मुख्य है। यह जीवित रहनेका सर्वोत्कृष्ट निमित्त माना गया है। इसके सद्भावमें प्राणीका जीवन है और इसके अभावमें वह मरा हुआ माना जाता है। अन्नादिक तो आयुको कायम रखने में सहकारीमात्र हैं। भवधारण करनेका मुख्य कारण आयुकर्म ही है ऐसा यहाँ समझना चाहिए।
8754. चार प्रकारके आयुका व्याख्यान किया। इसके अनन्तर जो नामकर्म कहा गया है उसकी उत्तर प्रकृतियोंका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास और विहायोगति तथा प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंके साथ अर्थात् साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर, स्थावर और त्रस, दुर्भग और सुभग, दुःस्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्त और पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयशःकोति और यशःकीर्ति एवं तीर्थकरत्व ये ब्यालीस नामकर्मके भेद हैं॥11॥
8755. जिसके उदयसे आत्मा भवान्तरको जाता है वह गति है । वह चार प्रकारकी है-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति । जिसका निमित्त पाकर आत्माका नारक भाव होता है वह नरकगति नामकर्म है । इसी प्रकार शेष गतियोंमें भी योजना करनी चाहिए। 1. --गतिर्देवगतिर्मनुष्यगतिश्चेति मु.। 2. योज्यन्ते । तासु आ.।
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