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सर्वार्थसिद्धौ
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[8!11 § 755नाम । तत्पञ्चविधम् – एकेन्द्रियजातिनाम हीन्द्रियजातिनाम त्रीन्द्रियजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम पञ्चेन्द्रियजातिनाम चेति । यदुदयादात्मा एकेन्द्रिय इति शब्द्यते तदेकेन्द्रियज तिनाम । एवं शेषेष्वपि योज्यम् | यदुदयादात्मनः शरीरनिवृत्तिस्तच्छरीरनाम । तत्पञ्चविधम्-औदारिकशरीरनाम वैक्रियिकशरीरनाम आहारकशरीरनाम तैजसशरीरनाम कार्मणशरीरनाम चेति । तेषां विशेषो व्याख्यातः । यदुदयादङ्गोपाङ्गविवेकस्तदङ्गोपाङ्गनाम । तत् त्रिविधम् औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम आहारकशरीराङ्गोपांगनाम चेति । यन्निमित्तात्परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणम् । तद् द्विविधं स्थान निर्माण प्रमाणनिर्माणं चेति । तज्जातिनामोदयापेक्षंचक्षुरादीनां स्थानं प्रमाणं च निर्वर्तयति । निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम् । शरीरनामकर्मोदयवशादुपात्तानां पुद्गलानामन्योन्यत्र देशसंश्लेषणं यतो भवति तद्द्बन्धननाम । यदुदयादौदारिकादिशरीराणां विवरविरहितान्योऽन्यत्र देशा नुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति सत्संघातनाम । यदुदयादौदारिकादिशरीराकृतिनिवृतिर्भवति तत्संस्थाननाम । तत् षोढा विभज्यते - समचतुरस्रसंस्थाननाम न्यग्रोधपरिमण्डलसस्थाननाम स्वातिसंस्थाननाम कुब्जसंस्थाननाम वामनसंस्थाननाम हुण्डसंस्थाननाम चेति । यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनननाम । तत् षड्विधम्-वन्त्रर्षभनाराचसंहनननाम वज्रनाराचसंहनननाम नाराचसंहनननाम अर्धनाराचसंहनननाम कीलि' का संहनननाम असंप्राप्ता पाटिकासंहनननाम चेति । यस्योदयात्स्पर्श प्रादुर्भावस्तत्स्पर्शनाम । तदष्टविधम्उन नरकादि गतियों में जिस अव्यभिवारी सादृश्यसे एकपने रूप अर्थ की प्राप्ति होती है वह जाति है । और इसका निमित्त जाति नामकर्म है । वह पाँच प्रकारका है- एकेन्द्रिय जाति नामकर्म द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म, त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म, चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म और पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म । जिसके उदयसे आत्मा एकेन्द्रिय कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है । इसी प्रकार शेष जातियोंमें भी योजना करनी चाहिए। जिसके उदयसे आत्माके शरीरकी रचना होती है वह शरीर नामकर्म है । वह पाँच प्रकारका है- औदारिक शरीर नामकर्म, जैविक शरीर नामकर्म, आहारक शरीर नामकर्म, तैजस शरीर नामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म । इनका विशेष व्याख्यान पहले कर आये हैं। जिसके उदयसे अंगोपांगका भेद होता है वह अंगोपांग नामकर्म है । वह तीन प्रकारका - औदारिक शरीर अंगोपांग नामकर्म, वैयिक शरीर अंगोपांग नामकर्म और आहारक शरीर अंगोपांग नामकर्म । जिसके निमित्तसे परिनिष्पत्ति अर्थात् रचना होती है वह निर्माण नामकर्म है। वह दो प्रकारका है—स्थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण । वह जाति नामकर्मके उदयका अवलम्बन लेकर चक्षु आदि अवयवोंके स्थान और प्रमाण की रचना करता है । निर्माण शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम्' जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण कहलाता है । शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए पुद्गलोंका अन्योन्य प्रदेश संश्लेष जिसके निमित्तसे होता है वह बन्धन नामकर्म है । जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंकी छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेश द्वारा एकरूपता आती है वह संघात नामकर्म है । जिसके उदयसे औदारिक आदि शरीरोंकी आकृति बनती है वह संस्थान नामकर्म है। वह छह प्रकारका है - समचतुरस्त्रसंस्थान नामकर्म, न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नामकर्म, स्वातिसंस्थान नामकर्म कुब्जकसंस्थान नामकर्म, वामन संस्थान नामकर्म और हुण्डसंस्थान नामकर्म। जिसके उदयसे अस्थियोंका बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है । वह छह प्रकारका है-वज्रर्पभनाराच संहनन नामकर्म, वज्रनाराचसंहनन नामकर्म, नाराचसंहनन नामकर्म, अर्धनाराचसंहनन नामकर्म, कीलिकासंहनन नामकर्म, और असम्प्राप्ता1. कीलितसं - भु । कीलस-- दि. 2 । 2. -- प्राप्तासृपा - आ., दि. 1, दि. 2 ।
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