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294] सर्वार्थसिद्धी
1813 8735तेनात्मगुणोऽदृष्टो निराकृतो भवति; तस्य संसारहेतुत्वानुपपत्तेः । 'आदत्ते' इति हेतुहेतुमद्भाषख्यापनार्थम् । अतो मिथ्यादर्शनाद्यावेशादा कृतस्यात्मनः सर्वतो योगविशेषातेषां सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहितामनन्तानन्तप्रदेशानां पुद्गलानां कर्मभावयोग्यानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इत्याख्यायते । यथा भाजनविशेष प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामस्तथा पुदगला. नामप्यात्मनि स्थितानां योगकषायवशात्कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः। 'सः'वचनमन्यनिवृत्त्यर्थम् । स एष बन्धो नान्योऽस्तीति । तेन गुणगुणिबन्धो निवतितो भवति । कर्मादिसाधनो बन्ध'-शब्दो व्याख्येयः । 8735. आह किमयं बन्ध एकरूप एव, आहोस्वित्प्रकारा अप्यस्य सन्तीत्यत इदमुच्यते
प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः ॥3॥ 8736. प्रकृतिः स्वभावः । निम्बस्य का प्रकृतिः ? तिक्तता। गुडस्य का प्रकृतिः ? मधुरता। तथा ज्ञानावरणस्य का प्रकृतिः ? अर्थानवगमः । दर्शनावरणस्य का प्रकृतिः ? अर्थानालोयोग्यान्' इस प्रकार षष्ठी अर्थको प्राप्त होती है। सूत्रमें 'पुद्गल' पद कर्म के साथ तादात्म्य दिखलानेके लिए दिया है। इससे अदृष्ट आत्माका गुण है इस बातका निराकरण हो जाता है. क्योंकि उसे आत्माका गुण मानने पर वह संसारका कारण नहीं बन सकता। सूत्रमें 'आदते' । पद हेतुहेतुमद्भावका ख्यापन करने के लिए दिया है। इससे मिथ्यादर्शन आदिके अभिनिवेशवश गीले किये गये आत्माके सब अवस्थाओंमें योग विशेषसे उन सूक्ष्म, एक क्षेत्रावगाही अनन्तानन्त कर्मभावको प्राप्त होने योग्य पुद्गलोंका उपश्लेष होना बन्ध है यह कहा गया है। जिस प्रकार पात्रविशेष में प्रक्षिप्त हुए विविध रसवाले बीज, फूल और फलोंका मदिरारूपसे परिणमन होता है उसी प्रकार आत्मामें स्थित हुए पुद्गलोंका भी योग और कषायके निमित्तसे कर्मरूपसे परिणमन जानना चाहिए। सूत्रमें 'सः' पद अन्यका निराकरण करनेके लिए दिया है कि यह बन्ध है अन्य नहीं। इससे गुणगुणीबन्धका निराकरण हो जाता है । यहाँ 'बन्ध' शब्दका कर्मादि साधनमें व्याख्यान कर लेना चाहिए।
विशेषार्थ---इस सूत्र में मुख्यरूपसे बन्धकी व्याख्या की गयी है । जीव द्रव्यका स्वतन्त्र अस्तित्व होते हए भी अनादि कालसे वह कर्मोंके अधीन हो रहा है जिससे उसे नर नारक आदि नाना गतियोंमें परिभ्रमण करना पड़ता हैं । प्रश्न यह है कि जीव कर्मोंके अधीन क्यों होता है और उन कर्मोंका स्वरूप क्या है ? प्रकृत सूत्र में इन दोनों प्रश्नोंका समर्पक उत्तर दिया गया है। सूत्रमें बतलाया गया है कि कर्मोंके कारण जीव कषायाविष्ट होता है और इससे उसके कर्मके योग्य पुद्गलोंका उपश्लेष होता है। यही बन्ध है । इससे दो बातें फलित होती हैं। प्रथम तो
ह कि कर्मके निमित्तसे जीवमें अशुद्धता आती है और इस अशुद्धताके कारण कर्मका बन्ध होता है और दूसरी यह कि जीव और कर्मका यह बन्ध परम्परासे अनादि है । इस प्रकार बन्ध क्या है और वह किस कारणसे होता है यह बात इस सूत्रसे जानी जाती है ।
8735. यह बन्ध क्या एक है या इसके भेद हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश ये चार भेद हैं ॥3॥
8736. प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है। जिस प्रकार नीमकी क्या प्रकृति है ? कड़ आपन । गडकी क्या प्रकृति है ? मीठापन । उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मकी क्या प्रकृति है ? अर्थका
1. -शेषे शिप्ता -मु.।
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