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292] सर्वार्थसिद्धौ
[811 $ 732-- चेति । तत्र इदमेव इत्थमेवेति धमिधर्मयोरभिनिवेश एकान्तः । “पुरुष एवेदं सर्वम्' इति वा नित्य एव वा अनित्य एवेति । सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि कि मोक्षमार्गः स्याद्वा न वेत्यन्तरपक्षापरिग्रहः संशयः। सर्वदेवतानां सर्वसमयानां च समदर्शनं वैनयिकम् । हिताहितपरीक्षाविरहोऽज्ञानिकत्वम् । उक्तं च
"असिदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं तह य होइ चुलसीदी।
सत्तट्ठमण्णाणोण वेणइयाणं तु बत्तीसं ।" 8732. अविरतिदिशविधाः; षटकायषट्करणविषयभेदात् । षोडश कषाया नव नोकषायास्तेषामोषभेदो न भेद इति पंचविंशतिः कषायाः । चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगाः पञ्च काययोगा इति त्रयोदशविकल्पो योगः। आहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगयोः प्रमत्तसंयते संभवात्पञ्चदशापि भवन्ति । प्रमादोऽनेकविधः'; शुद्धयष्टकोत्तमक्षमादिविषयभेदात् । त एते पञ्च बन्धहेतवः सपस्ता व्यस्ताश्च भवन्ति । तद्यथा--मिथ्यादृष्टः पंचापि समुदिता बन्धहेतवो भवन्ति । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्य मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टीनामविरत्यादयश्चत्वारः । संयतासंयतस्याविरतिविरतिमिश्रा प्रमादकषाययोगाश्च । प्रमत्तसंयतस्य प्रमादकषाययोगाः । मिथ्यादर्शन, विपरीतमिथ्यादर्शन, संशयमिथ्यादर्शन, वैनयिकमिथ्यादर्शन और अज्ञानिक मिथ्यादर्शन । यही है, इसी प्रकारका है इस प्रकार धर्म और धर्मीमें एकान्तरूप अभिप्राय रखना एकान्त मिथ्यादर्शन है। जैसे यह सब जग परब्रह्मरूप ही है, या सब पदार्थ अनित्य ही हैं या नित्य ही हैं । सग्रन्थको निर्ग्रन्थ मानना, केवलीको कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय मिथ्यादर्शन है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर क्या मोक्षमार्ग है या नहीं इस प्रकार किसो एक पक्षको स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है। सब देवता और सब मतोंको एक समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है। हिताहितकी परीक्षासे रहित होना अज्ञानिक मिथ्यादर्शन है । कहा भी है--"क्रियावादियोंके एकसौ अस्सी, अक्रियावादियोंके चौरासी, अज्ञानियोंके सड़सठ और वैनयिकोंके बत्तीस भेद हैं।
6732. छहकायके जीवोंकी दया न करनेसे और छह इन्द्रियोंके विषयभेदसे अविरति बारह प्रकारकी है। सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये पच्चीस कषाय हैं। यद्यपि कषायोंसे नोकषायोंमें थोड़ा भेद है पर वह यहाँ विवक्षित नहीं है, इसलिए सबको कषाय कहा है । चार मनोयोग, चार वचनयोग और पाँच काययोग ये योगके तेरह भेद हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें आहारक ऋद्धिधारी मुनिके आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग भी सम्भव हैं इस प्रकार योग पन्द्रह भी होते हैं । शुद्धयष्टक और उत्तम क्षमा आदि विषयक भेदसे प्रमाद अनेक प्रकारका है । इस प्रकार ये मिथ्यादर्शन आदि पाँचों मिलकर या पृथक्-पृथक् बन्धके हेतु हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-----मिथ्यादष्टि जीवके पाँचों ही मिलकर बन्धके हेतु हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि के अविरति आदि चार बन्धके हेतु हैं । संयतासंयतके विरति और अविरति ये दोनों मिश्ररूप तथा प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके हेतु हैं । प्रमत्तसंयतके प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्धके हेतु हैं । अप्रमत्तसंयत आदि चारके 1. इति वा नित्यमेवेति मु, दि 1, दि. 2, आ.। 2. गो. कर्म., गा. 8761 3. --याणं च होइ मू. । 4. सत्तच्छण्णा--म. 5. --षायाः ईषद्म- दि. 1, दि. 2, आ.। 6. --दश भवन्ति आ., दि. 1, दि. 2 । 7. -नेकविधः पंचसमितित्रिगुप्तिशुद्धय- मु., आ., दि. 1, दि. 2। 8. --भेदात् । शुद्धयष्टकस्यार्थः भावकायविनयेर्यापथभिक्षाप्रतिष्ठापनशयनासनवाक्यशुद्धयोऽष्टी दशलक्षणो धर्मश्च । त एते मु., आ., दि. 1, दि. 21
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