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अथाष्टमोऽध्यायः 8729. व्याख्यात आस्रवपदार्थः । तदनन्तरोद्देशभाग्बन्धपदार्थ इदानी व्याख्येयः। तस्मिव्याख्येये सति पूर्व बन्धहेतूपन्यासः क्रियते; तत्पूर्वकत्वाद् बन्धस्येति--
मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥॥ 8730. मिथ्यादर्शनादय उक्ताः । क्व ? मिथ्यादर्शनं तावदुक्तम्, 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इत्यत्र तत्प्रतिपक्षभूतम्, आस्रवविधाने च क्रियासु व्याख्यातं मिथ्यादर्शनक्रियेति । विरतिरुक्ता । तत्प्रतिपक्षभूता अविरति ह्या । आज्ञाब्यापादनक्रिया अनाकाङ्क्षाक्रियेत्यनयोः प्रमादस्यान्तर्भावः । स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः । कषायाः क्रोधादयः अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाः प्रोक्ताः। क्व ? 'इन्द्रियकषाया' इत्यत्रैव। योगाः कायादिविकल्पाः प्रोक्ताः। क्व ? 'कायवाड्मनःकर्म योगः' इत्यत्र ।
731. मिथ्यादर्शनं द्विविधम् ; नैसर्गिक परोपदेशपूर्वकं च । तत्र परोपदेशमन्तरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम् । परोपदेशनिमित्तं चतुविधम् ; क्रियाक्रियावाद्यज्ञानिक वनयिकविकल्पात् । अथवा पञ्चविधं मिथ्यादर्शनम् --एकान्तमिथ्यादर्शनं विपरीतमिथ्यादर्शनं संशयमिथ्यादर्शन वै यकमिथ्यादर्शनम् अज्ञानिकमिथ्यावर्शनं
6729. आस्रव पदार्थका व्याख्यान किया । अब उसके बाद कहे गये बन्ध पदार्थका व्याख्यान करना चाहिए। उसका व्याख्यान करते हुए पहले बन्धके कारणोंका निर्देश करते हैं, क्योंकि बन्ध तत्पूर्वक होता है
मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्धके हेतु हैं ॥1॥
8730. मिथ्यादर्शन आदिका व्याख्यान पहले किया जा चुका है। शंका-इनका व्याख्यान पहले कहाँ किया है ? 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इस सूत्रमें सम्यग्दर्शनका व्याख्यान किया है। मिथ्यादर्शन उसका उलटा है, अत: इससे उसका भी व्याख्यान हो जाता है। या आस्रवका कथन करते समय पच्चीस क्रियाओंमें मिथ्यादर्शनक्रियाके समय उसका व्याख्यान किया है । विरतिका व्याख्यान पहले कर आये हैं। उसकी उलटी अविरति लेनी चाहिए। प्रमादका अन्तर्भाव आज्ञाव्यापादनक्रिया और अनाकांक्षाक्रिया इन दोनोंमें हो जाता है। अच्छे कार्योंके करने में आदरभावका न होना प्रमाद है। कषाय क्रोधादिक हैं जो अन्ततानुबन्धी, अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलनके भेदसे अनेक प्रकारकी हैं। इनका भी पहले कथन कर आये हैं। शंका. कहाँ पर ? समाधान—'इन्द्रियकषाया' इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते समय। तथा कायादिके भेदसे तीन प्रकारके योगका आख्यान भी पहले कर आये हैं। शंका-कहाँ पर? समाधान'कायवाङ मनःकर्म योगः' इस सूत्रमें।
8731. मिथ्यादर्शन दो प्रकारका है-नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । इनमेसे जो परोपदेशके बिना मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे जीवादि पदार्थोंका अश्रद्धानरूप भाव होता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है । तथा परोपदेशके निमित्तसे होनेवाला मिथ्यादर्शन चार प्रकारका है-क्रिय.. वादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयि : । अथवा मिथ्यादर्शन पाँच प्रकारका है-एकान्त 1. श्रद्धानं इत्यत्र आ., दि. 1, दि. 2। 2. -शानिर्व- मु.। 3. अज्ञानमिध्या-- मु.।
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