________________
-7139 § 728]
सप्तमोऽध्यायः
[289
प्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिंस्तेनेति वा निदानम् । त एते पञ्च सल्लेखनाया अतिचाराः ।
8725. अत्राह उनं भवता' तीर्थकरत्वकारणकर्मास्रवनिर्देशे 'शक्तितस्त्यागतपसी' इति, पुनश्चोक्तं शीलविधाने 'अतिथिसंविभाग' इति । तस्य दानस्य लक्षणमनिर्ज्ञातं तदुच्यतामित्यत आह---
अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥38॥
8726. स्वपरोपकारोऽनुग्रहः । स्वोपकारः पुण्यसंचयः; परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिवृद्धिः । 'स्व' शब्दो धनपर्यायवचनः । अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गस्त्यागो दानं वेदितव्यम् ।
8727. अत्राह-उक्तं दानं तत्किमविशिष्टफलमाहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इत्यत
आह
विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ||39 ||
8728. प्रतिग्रहादिक्रमो विधिः । विशेषो गुणकृतः । तस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः क्रियते-विधिविशेषो द्रव्यविशेषो दातृ विशेषः पात्रविशेष इति । तत्र विधिविशेषः प्रतिग्रहादिष्वादरानादरकृतो भेदः । तपःस्वाध्यायपरिवृद्धि हेतुत्वादिद्रव्यविशेषः । अनसूयाविषादादिर्दातृ विशेषः ।
स्मरण करना सुखानुबन्ध है । भोगाकांक्षासे जिसमें या जिसके कारण चित्त नियमसे दिया जाता है वह निदान है । ये सब सल्लेखना के पाँच अतिचार हैं ।
8725. तीर्थंकर पदके कारणभूत कर्मके आस्रवका कथन करते समय शक्तिपूर्वक त्याग और तप कहा; पुनः शीलोंका कथन करते समय अतिथिसंविभागव्रत कहा परन्तु दानका लक्षण अभीतक ज्ञात नहीं हुआ, इसलिए दानका स्वरूप बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अनुग्रहके लिए अपनी वस्तुका त्याग करना दान है ॥38॥
$ 726. स्वयं अपना और दूसरेका उपकार करना अनुग्रह है। दान देने से पुण्यका संचय होता है यह अपना उपकार है तथा जिन्हें दान दिया जाता है उनके सम्यग्ज्ञान आदिकी वृद्धि होती है यह परका उपकार है । सूत्रमें आये हुए स्वशब्दका अर्थ धन है। तात्पर्य यह है कि अतुग्रहके लिए जो धनका अतिसर्ग अर्थात् त्याग किया जाता है वह दान है ऐसा जानना चाहिए । 8727. दानका स्वरूप कहा तब भी उसका फल एक-सा होता है या उसमें कुछ विशेषता है, यह बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
विधि, देय वस्तु, दाता और पात्रकी विशेषतासे उसकी विशेषता है ॥39॥
8728. प्रतिग्रह आदि करनेका जो क्रम वह विधि है । विशेषता गुणसे आती है । इस विशेष शब्दको विधि आदि प्रत्येक शब्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा - विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दाताविशेष और पात्रविशेष । प्रतिग्रह आदिकमें आदर और अनादर होनेसे जो भेद होता है वह विधिविशेष है। जिससे तप और स्वाध्याय आदिकी वृद्धि होती है वह द्रव्यविशेष है । अनसूया और विषाद आदिका न होना दाताकी विशेषता है। तथा मोक्षके कारणभूत गुणोंसे युक्त रहना पात्रकी विशेषता है । जैसे पृथिवी आदिमें विशेषता होनेसे उससे उत्पन्न हुए 1. भगवता मु., ता. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org