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---71346721] सप्तमोऽध्यायः
[287 मानर्थक्यम् । त एते पञ्चानर्थदण्डविरतेरतिचाराः।
योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥33॥ 8720. योगो व्याख्यातस्त्रिविधः। तस्य दुष्ट प्रणिधानं योगदुष्प्रणिधानम्-कायदुष्प्रणिधानं वाग्दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानमिति। अनादरोऽनुत्साहः । अनैकाग्रय स्मृत्यनुपस्थानम् । त एते पञ्च सामायिकस्यातिक्रमाः।
अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥34॥
8721. जन्तवः सन्ति न सन्ति वेति प्रत्यवेक्षणं चक्षुर्व्यापारः। मृदुनोपकरणेन यत्क्रियते प्रयोजनं तत्प्रमाजितम् । तदुभयं प्रतिषेधविशिष्टमुत्सर्गादिभिस्त्रिभिरभिसंबध्यते-अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग इत्येवमादि । तत्र अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितायां भूमौ मूत्रपुरीषोत्सर्गः अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गः। अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्याहंदाचार्यपूजोपकरणस्य गंधमाल्यधूपादेरात्मपरिधानाधर्थस्य च वस्त्रादेरादानमप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादानम् । अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितस्य प्रावरणादेः संस्तरस्योपक्रमणं अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमणम् । क्षुददितत्वादावश्यकेष्वनादरोऽनुत्साहः । स्मुत्यनुपस्थानं व्याख्यातम् । त एते पञ्च प्रोषधोपवासस्यातिचाराः। वस्तुकी आवश्यकता है वह अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। इस प्रकार ये अनर्थदण्डविरति व्रतके पाँच अतिचार हैं।
काययोगदुष्प्रणिधान, वचनयोगदुष्प्रणिधान, मनोयोगदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान ये सामायिक व्रतके पाँच अतिचार हैं ॥33॥
8720 तीन प्रकारके योगका व्याख्यान किया जा चुका है। उसका बुरी तरहसे प्रयोग करना योगदुष्प्रणिधान है जो तीन प्रकारका है-कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान और मनोदुष्प्रणिधान । उत्साहका न होना अनुत्साह है और वही अनादर है। तथा एकाग्रताका न स्मृत्यनुपस्थान है। इस प्रकार ये सामायिक व्रतके पाँच अतिचार हैं।
अप्रत्यवेक्षित अप्रमाजित भूमिमें उत्सर्ग अप्रत्यवेक्षित अप्रमाजित वस्तुका आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित सस्तरका उपक्रमण, अनादर और स्मृतिका अनुपस्थान ये प्रोषधोपवास वृतके पाँच अतिचार हैं ॥34॥
8721. जीव हैं या नहीं हैं इस प्रकार आँखसे देखना प्रत्यवेक्षण कहलाता है और कोमल उपकरणसे जो प्रयोजन साधा जाता है वह प्रमाणित कहलाता है । निषेधयुक्त इन दोनों पंदोंका उत्सर्ग आदि अगले तीन पदोंसे सम्बन्ध होता है। यथा—अप्रत्यवेक्षिनाप्रमार्जितोत्सर्ग आदि । बिना देखी और बिना प्रमाणित भूमिमें मल-मूत्रका त्याग करना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्ग है । अरहंत और आचार्यको पूजाके उपकरण, गन्ध, माला और धूप आदिको तथा अपने ओढ़ने आदिके वस्त्रादि पदार्थोंको बिना देखे और बिना परिमार्जन किये हुए ले लेना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादान है। बिना देखे और बिना परिमार्जन किये हुए प्रावरण आदि संस्तरका बिछाना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण है । भूखसे पीड़ित होनेके कारण आवश्यक कार्यों में अनुत्साहित होना अनादर है । स्मृत्यनुपस्थानका व्याख्यान पहले किया ही है। इस प्रकार ये प्रोषधोपवास व्रतके पाँच अतिचार हैं।
1. दुःप्रणि-- मु.। 2. --दिभिरभि-- मु.। 3. --माजितभूमौ आ., दि., 1, दि. 2 ।
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