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---7129 § 716]
सप्तमोऽध्यायः
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करणम् । परपुरुषानेति गच्छतीत्येवंशीला' इत्वरी । कुत्सिता इत्वरी कुत्सायां क इत्वरिका । या एकपुरुषभ का सा परिगृहीता । या गणिकात्वेन पु'उत्तलीत्वेन वा परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता । परिगृहीता चापरिगृहीता च परिगृहीतापरिगृहीते । इत्यरिकेच ते परिगृहीतापरिगृहीते च इत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीते, तयोर्गमने इत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमने । अंग प्रजननं योनिश्च ततोऽन्यत्र क्रीडा अनङ्गकीडा | कामस्य प्रवृद्धः परिणामः कामतीवाभिनिवेशः । त एते पंच स्वदार संतोषव्रतस्थातिचाराः ।
क्षेत्र वास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ||29||
6 715. क्षेत्रं सस्याधिकरणम् । वास्तु अगारम् । हिरणं रूप्यादिव्यवहारतन्त्रम् । सुवर्ण प्रतीतम् । धनं गवादि । धान्यं व्रीह्यादि । दासीद सं भृत्यस्त्रीषु सवर्गः । कुप्यं क्षौमकार्पासकौशेयचन्दनादि । क्षेत्रं च वास्तु च क्षेत्रवास्तु, हिरण्यं च सुवर्णं च हिरण्यसुवर्णम् धनं च धान्यं च धनधान्यम्, दासी च दासश्च दासीदासम् । क्षेत्रस्तु च हिरण्यसुवर्णं च धनधान्यं च दासीदास च कुप्यं च क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यानि । एतावानेव परिग्रहो मम नान्य इति परिच्छिन्नाणुप्रमाणात्क्षेत्रवास्त्वादिविष्यादतिरेका अतिलोभवशात्प्रमाणातिक्रमा इति प्रत्याख्यायन्ते । त एते परिग्रहपरिमाणव्रतस्थातिचाराः ।
$ 716. उक्ता व्रतानामतिचाराः शीलानामतिचारा वक्ष्यन्ते । तद्यथा
इसका करना परविवाह करण है। जिसका स्वभाव अन्य पुरुषोंके पास जाना-आना है वह इत्वरी कहलाती है । इत्वरी अर्थात् अभिसारिका । इसमें भी जो अत्यन्त आचरट होती है वह इत्रका कहलाती है । यहाँ कुत्सित अर्थ में 'क' प्रत्यय होकर इत्वरिका शब्द बना है। जिसका कोई एक पुरुष भर्ता है वह परिगृहीता कहलाती है । तथा जो वेश्या या व्यभिचारिणी होनेसे दूसरे पुरुषोंके पास जाती आती रहती है और जिसका कोई पुरुष स्वामी नहीं है वह अपरिगृहीता कहलाती है। परिगृहीता इत्वरिकाका गमन करना इत्वरिकापरिगृहीतागमन है और अपरिगृहीता इत्वरिकाका गमन करना इत्वरिका अपरिगृहीतागमन है । यहाँ अंग शब्दका अर्थ प्रजनन और योनि है। तथा इनके सिवा अन्यत्र क्रीडा करना अनंगक्रीडा है । कामविषयक बढ़ा हुआ परिणाम कामतीव्राभिनिवेश है। ये स्वदारसन्तोष अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ।
क्षेत्र और वास्तुके प्रमाणका अतिक्रम, हिरण्य और सुवर्ण के प्रमाणका अतिक्रम, धन और धान्यके प्रमाणका अतिक्रम दासी और दासके प्रमाणका अतिक्रम तथा कुप्यके प्रमाणका अतिक्रम ये परिग्रहपरिमाण अणुवृतके पाँच अतिचार हैं ॥29॥
$ 715. धान्य पैदा करनेका आधारभूत स्थान क्षेत्र है। मकान वास्तु है । जिससे रूप्य आदिका व्यवहार होता है वह हिरण्य है। सुवर्णका अर्थ स्पष्ट है । धनसे गाय आदि लिये जाते हैं । धान्यसे व्रीहि आदि लिये जाते हैं। नौकर स्त्री पुरुष मिलकर दासी दास कहलाते हैं । रेशम, कपास, और कोसाके वस्त्र तथा चन्दन आदि कुप्य कहलाते हैं । क्षेत्र - वास्तु, हिरण्य- सुवर्ण, धन-धान्य, दासो- दास और कुप्य इनके विषय में मेरा इतना ही परिग्रह है इससे अधिक नहीं ऐसा प्रमाण निश्चित करके लोभवश क्षेत्रवास्तु आदिके प्रमाणको बढ़ा लेना प्रमाणातिक्रम है। इस प्रकार ये परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ।
$ 716. व्रतोंके अतिचार कहे । अव शीलोंके अतिचार कहते हैं जो इस प्रकार हैं -
1. शीला इत्वरी कुत्सा-- मु., ता. 2. च्छिन्नात्प्रमा- मु. ।
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