________________
--818 $746] अष्टमोऽध्याया
[299 तस्या उपर्युपरि वृत्तिनिद्रानिद्रा । या क्रियात्मानं प्रचलयति सा प्रचला शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका। सैव पुनःपुनरावर्तमाना' प्रचलाप्रचला। स्वप्ने यया वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः । स्त्यायतेरनेकार्थत्वात्स्वप्नार्थ इह गृहयते, गद्धरपि दीप्तिः । स्त्याने स्वप्ने गद्धयति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं बहकर्म करोति सा स्त्यानगद्धिः । इह निद्रादिभिदर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यते-निद्रादर्शनावरणं निद्रानिद्रादर्शनावरणमित्यादि। 8745. तृतीयस्याः प्रकृतेरुत्तरप्रकृतिप्रतिपादनार्थमाह--
सदसवेद्ये ॥8॥ 8746. यदुदयाद्देवादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम्'। प्रशस्तं वेद्यं सद्वैद्यमिति। यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यमिति । और परिश्रमजन्य थकावटको दूर करनेके लिए नींद लेना निद्रा है । इसकी उत्तरोत्तर प्रवृत्ति होना निद्रानिद्रा है । जो शोक, श्रम और मद आदिके कारण उत्पन्न हुई है और जो बैठे हुए प्राणीके भी नेत्र, गात्रकी विक्रियाकी सूचक है ऐसी जो क्रिया आत्माको चलायमान करती है वह प्रचला है । तथा उसकी पुनः-पुन: आवृत्ति होना प्रचलाप्रचला है। जिसके निमित्तसे स्वप्नमें वीर्यविशेषका आविर्भाव होता है वह स्त्यानगृद्धि है । 'स्त्यायति' धातुके अनेक अर्थ हैं। उनमेंसे यहाँ स्वप्न अर्थ लिया है और 'गृद्धि' दीप्यते जो स्वप्नमें प्रदीप्त होती है वह 'स्त्यानगृद्धि' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-'स्त्याने स्वप्ने' गद्धयति धातुका दीप्ति अर्थ लिया गया है। अर्थात जिसके उदयसे रौद्र बहु कर्म करता है वह स्त्यानगृद्धि है । यहाँ निद्रादि पदोंके साथ दर्शनावरण पदका समानाधिकरणरूपसे सम्बन्ध होता है यथा-निद्रादर्शनावरण, निद्रानिद्रादर्शनावरण आदि।
विशेषार्थ--यहाँ दर्शनावरण कर्मके नौ भेद गिनाये हैं । दर्शनके कुल भेद चार हैं उनकी अपेक्षा प्रारम्भके चार भेद गिनाये हैं । निद्रादिक सामान्य आवरण कर्म हैं पर संसारी जीवके पहले दर्शनोपयोग होता है और ये निद्रादिक उस उपयोगमें बाधक हैं इसलिए इन निद्रा आदि पाँच कर्मोंकी दर्शनावरणके भेदोंमें परिगणना की जाती है। इससे दर्शनावरण कर्मके नौ भेद सिद्ध होते हैं।
8745. तृतीय प्रकृतिकी उत्तर प्रकृतियोंको बतलाने के लिए कहते हैं'सद्वेद्य और असवेद्य ये दो वेदनीय हैं ॥8॥
8746. जिसके उदयसे देवादि गतियोंमें शरीर और मनसम्बन्धी सुखकी प्राप्ति होती है वह सद्वद्य है। प्रशस्त वेद्यका नाम सद्वद्य है। जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकारके दुःख मिलते हैं वह असह्यद्य है। अप्रशस्त वेद्यका नाम असदद्य है।
विशेषार्थ-यहाँ वेदनीय कर्मके दो भेद गिनाये हैं । यह जीवविपाकी कर्म है। जीवका साता और असातारूप परिणाम इसके उदयके निमित्तसे होता है। अन्य बाह्य सामग्रीको इसका फल कहा है पर वह उपचार कथन है । वस्तुतः बाह्य सामग्री साता और असाताके उदयमें निमित्त है, इसलिए बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति वेदनीय कर्मका फल उपचारसे माना जा सकता है। देवगति. नरकगति और भोगभूमिमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका कारण तत्तत्पर्यायकी लेश्या है और कर्मभूमिमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके अनेक कारण हैं । इस प्रकार वेदनीय कर्मके दो भेद और उनका कार्य जानना चाहिए। . 1:-वय॑माना आ., दि. 1, दि. 2। 2. स्वप्नेऽपि यया मु., आ., दि. 1, दि. 21
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org