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--812 8 734] अष्टमोऽध्यायः
[293 अप्रमत्तादीनां चतुर्णा योगकषायो। उपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवलिनामेक एव योगः। अयोगकेवलिनो न बन्धहेतुः। 8733. उक्ता बन्धहेतवः । इदानी बन्धो वक्तव्य इत्यत आह--
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥2॥ 8734. सह कषायेण वर्तत इति सकषायः । सकषायस्य भावः सकषात्वम् । तस्मात्सकषायत्वादिति । पुनर्हेतुनिर्देशः1 जठराग्न्याशयानुरूपाहारग्रहणवत्तीव्रमन्दमध्यमकषायाशयानुरूपस्थित्यनुभवविशेषप्रतिपत्त्यर्थम् । अमूतिरहस्त आत्मा कथं कर्मादत्त इति चोदितः सन् 'जीव' इत्याह । जीवनाज्जीवः प्राणधारणादायुःसंबन्धान्नायुविरहादिति । 'कर्मयोग्यान्' इति लघुनिर्देशात्सिद्धे 'कर्मणो योग्यान्' इति पृथग्विभक्त्युच्चारणं वाक्यान्तरज्ञापनार्थम् । कि पुनस्तद्वाक्यान्तरम? कर्मणो जीवः सकषायो भवतीत्येकं वाक्यम् । एतदुक्तं भवति-'कर्मणः' इति हेतुनिर्देशः कर्मणो हेतो वः सकषायो भवति, नाकर्मस्य कषायलेपोऽस्ति । ततो जीवकर्मणोरनादिसंबन्ध इत्युक्तं भवति । तेनामूर्तो जीवो मूर्तेन कर्मणा कथं बध्यते इति चोद्यमपाकृतं भवति । इतरथा हि बन्धस्यादिमत्त्वे आत्यन्तिकों शुद्धि दधतः सिद्धस्येव बन्धाभावः प्रसज्येत। द्वितीय वाक्यं 'कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते' इति । अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति पूर्वहेतुसंबन्धं त्यक्त्वा षष्ठीसंबन्धमुपैति 'कर्मणो योग्यान्' इति । 'पुद्गल'वचनं कर्मणस्तादात्म्यख्यापनार्थम् । योग और कषाय ये दो बन्धके हेतु हैं। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली इनके एक योग ही बन्धका हेतु है । अयोगकेवलीके बन्धका हेतु नहीं है।
8733. बन्धके हेतु कहे । अब बन्धका कथन करना चाहिए इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं--
कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य पुदगलोंको ग्रहण करता है वह बन्ध है ॥2॥
8734. कषायके साथ रहता है इसलिए सकषाय कहलाता है और सकषायका भाव सकषायत्व है। इससे अर्थात् सकषाय होनेसे । यह हेतुनिर्देश है । जिस प्रकार जठराग्निके अनुरूप आहारका ग्रहण होता है उसी प्रकार तीव्र, मन्द और मध्यम कषायाशयके अनुरूप ही स्थिति और अनुभाग होता है । इस प्रकार इस विशेषताका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें 'सकषायत्वात्' इस पदद्वारा पुनः हेतुका निर्देश किया है। अमूर्ति और बिना हाथवाला आत्मा कर्मोको कैसे ग्रहण करता है इस प्रश्नका उत्तर देनेके अभिप्रायसे सूत्रमें 'जीव' पद कहा है। जीव शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-जीवनाज्जीवः-जो जीता है अर्थात् जो प्राणोंको धारण करता है, जिसके आयुका सद्भाव है, आयुका अभाव नहीं है वह जीव है। सूत्रमें 'कर्मयोग्यान्' इस प्रकार लघु निर्देश करनेसे काम चल जाता फिर भी 'कर्मणो योग्यान्' इस प्रकार पृथक् विभक्तिका उच्चारण वाक्यान्तरका ज्ञान करानेके लिए किया है । वह वाक्यान्तर क्या है ? 'कर्मणो जीवः सकषायो भवति' यह एक वाक्य है । इसका यह अभिप्राय है कि 'कर्मण:' यह हेतुपरक निर्देश है जिसका अर्थ है कि कर्मके कारण जीव कषायसहित होता है। कर्मरहित जीवके कषायका लेप नहीं होता। इससे जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है यह कथन निष्पन्न होता है। और इससे अमर्त जीव मूर्त कर्मके साथ कैसे बँधता है इस प्रश्नका निराकरण हो जाता है। अन्यथा बन्धको सादि मानने पर आत्यन्तिक शुद्धिको धारण करनेवाले सिद्ध जीवके समान संसारी जीवके बन्धका अभाव प्राप्त होता है। 'कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते' यह दूसरा वाक्य है, क्योंकि अर्थके अनुसार विभक्ति बदल जाती है इसलिए पहले जो हेत्वर्थमें विभक्ति थो वह अब 'कर्मणो 1. -निर्देशः किमर्थम् ? जठ- मु., दि. 1 1 2. -त्यर्थः । ...त आत्मा ता., ना.। 3. -नार्थम् । अत आत्म-आ.।
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