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सर्वार्थसिद्धी
[71148688-- "मरदु व जियदुव जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामित्तण समिदस्स ।।" नैष दोषः । अत्रापि प्राणव्यपरोपणमस्ति भावलक्षणम् । तथा चोक्तम --
"स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् ।
पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ।।" 8688. आह अभिहितलक्षणा हिंसा । तदनन्तरोद्दिष्टमनृतं किलक्षणमित्यत्रोच्यते--
असदभिधानमनृतम् ॥14॥ 8 689. सच्छन्दः प्रशंसावाची । सदसदप्रशस्तमिति यावत् । सतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानमनृतम् । ऋतं सत्यं, न ऋतमनृतम्। किं पुनरप्रशस्तम् ? प्राणिपीडाकरं यत्तदप्रशस्तं विद्यमानार्थविषयं वा अविद्यमानार्थविषयं वा । उक्तं च प्रागेवाहिसाव तपरिपालनार्थमितरद्वतम् इति । तस्माद्धिसाकर वचोऽन्तमिति निश्चेयम् । 8 690. अथानृतानन्तरमुद्दिष्टं यत्स्तेयं तस्य किं लक्षामत्यत आह----
अदत्तादानं स्तेयम् ॥15॥ 8691. आदानं ग्रहणमदत्तस्यादानमदत्तादानं स्तेयमित्युच्यते । यद्येवं कर्मनोकर्मग्रहणमपि स्तेयं प्राप्नोति; अन्येनादत्तत्वात् ? नैष दोषः, दानादाने यत्र संभवतस्तत्रैव स्तेयव्यवहारः।
'जीव मर जाय या जीता रहे तो भी यत्नाचारसे रहित पुरुषके नियमसे हिंसा होती है और जो यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है, हिंसाके हो जाने पर भी उसे बन्ध नहीं होता ॥' ।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ भी भावरूप प्राणोंका नाश है ही । कहा भी है
'प्रमादसे युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियोंका बध होवे या मत होवे।
868 8. हिंसाका लक्षण कहा । अब उसके बाद असत्यका लक्षण बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
असत् बोलना अनृत है ॥15॥
8689. सत् शब्द प्रशंसावाची है । जो सत् नहीं वह असत् है । असत्का अर्थ अप्रशस्त है । तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ नहीं है उसका कथन करना अनृत-असत्य कहलाता है। ऋतका अर्थ सत्य है और जो ऋत--सत्य नहीं है वह अनृत है । शंका-अप्रशस्त किसे कहते हैं ? समाधान--जिससे प्राणियोंको पीड़ा होती है उसे अप्रशस्त कहते हैं। भले ही वह चाहे विद्यमान पदार्थको विषय करता हो या चाहे अविद्यमान पदार्थको विषय करता हो । यह पहले ही कहा है कि शेष व्रत अहिंसा व्रतकी रक्षाके लिए हैं। इसलिए जिससे हिंसा हो वह वचन अनृत है ऐसा निश्चय करना चाहिए।
$690. असत्यके वाद जो स्तेय कहा है उसका क्या लक्षण है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
बिना दी हुई वस्तुका लेना स्तेय है ॥15॥
8691. आदान शब्दका अर्थ ग्रहण है। बिना दी हुई वस्तुका लेना अदत्तादान है और यही स्तेय-चोरी कहलाता है । शंका-यदि स्तेयका पूर्वोक्त अर्थ किया जाता है तो कर्म और 1, वचन. 317। 2. तत्रापि आ. दि. 1, दि. 2। 3. --हिंसाप्रतिपाल-- मु.। 4. कर्मवचो मु. ।
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