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270] सर्वार्थसिद्धौ
[71118683मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥1॥
8683. परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री। वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भवितरागः प्रमोदः । दीनानुग्रहभावः कारुण्यम् । रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम् । दुष्कर्मविपाकवशान्नानायोनिषु सीदन्तीति सत्त्वा जीवाः । सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः । असāद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्यमानाः । तत्त्वार्थश्रवणग्रहणाभ्यामसंपादितगुणा अविनेयाः। एतेषु सत्त्वादिषु यथासंख्यं मैत्र्यादीनि भावयितव्यानि । सर्वसत्त्वेषु मैत्री, गुणाधिकेषु प्रमोदः, क्लिश्यमानेषु कारुण्यम्, अविनेयेषु माध्यस्थ्यमिति । एवं भावयतः पूर्णान्याहंसादीनि व्रतानि भवन्ति । 8684. पुनरपि भावनान्तरमाह--
"जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥ 8685. जगत्स्वभावस्तावदनादिरनिधनो वेत्रासनझल्लरीमदंगनिभः। अत्र जीवा अनादिसंसारेऽनन्तकालं न नायोनिषु दुःखं भोज भोजं पर्यटन्ति । न चात्र किचिन्नियतमस्ति । जलबुद्बुदोपमं जीवितम्, विद्युन्मेघादिविकारचपला भोगसंपद इति । एवमादिजगत्स्वभावचिन्तनात्संसारात्संवेगो भवति । कायस्वभावश्च अनित्यता दुःखहेतुत्व निःसारता अशुचित्वमिति । एवमादि
प्राणीमात्रमें मैत्री, गुणाधिकोंमें प्रमोद, क्लिश्यमानोंमें करुणा वृत्ति और अविनेयोंमें माध्यस्थ्य भावना करनी चाहिए ॥1॥
8683. दूसरोंको दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है । मुखकी प्रसन्नता आदिके द्वारा भीतर भक्ति और अनुरागका व्यक्त होना प्रमोद है। दोनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है। रागद्वेषपूर्वक पक्षपातका न करना माध्यस्थ्य है। बरे कर्मोके फलसे जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्त्व हैं। सत्त्व यह जीवका पर्यायवाची नाम है। जो सम्यग्ज्ञानादि गुणोंमें बढ़ चढ़े हैं वे गुणाधिक कहलाते हैं । असातावेदनीयके उदयसे जो दु:खी हैं वे क्लिश्यमान कहलाते हैं। जिनमें जीवादि पदार्थोंको सुनने और ग्रहण करनेका गुण नहीं हैं वे अविनेय कहलाते हैं। इन सत्त्व आदिकमें क्रमसे मैत्री आदिकी भावना करनी चाहिए। जो सब जीवोंमें मैत्री, गुणाधिकोंमें प्रमोद, क्लिश्यमानोंमें कारुण्य और अविनेयोंमें माध्यस्थ्य भावकी भावना करता है उसके अहिंसा आदि व्रत पूर्णताको प्राप्त होते हैं।
8684. अब फिर भी और भावनाके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -
संवेग और वैराग्यके लिए जगत्के स्वभाव और शरीरके स्वभावकी भावना करनी चाहिए ॥12॥
8685. जगत्का स्वभाव यथा—यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंगके समान है। इस अनादि संसारमें जीव अनन्त काल तक नाना योनियोंमें दु:खोंको पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं। इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है । जीवन जलके बुलबुलेके समान है । और भोग-सम्पदाएं बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं-इत्यादि रूपसे जगत्के स्वभावका चिन्तन करनेसे संसारसे संवेग-भय होता है। कायका स्वभाव यथा-यह शरीर अनित्य है, दुःखका कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि। इस प्रकार कायके 1. मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनतश्चित्तप्रसादनम् ।' पा. यो. सू. 1, 33 । 2. शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा पररसंसर्गः।- पा. यो. सू. 2,40।
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