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-71188697] सप्तमोऽध्यायः
[275 मोहाभावान्न मूर्छास्तीति निष्परिग्रहत्वं सिद्धम् । किंच तेषां ज्ञानादीनामहेयत्वादात्मस्वभावस्वावपरिग्रहत्वम् । रागादयः पुनः कर्मोदयतन्त्रा इति अनात्मस्वभावत्वाद्धयाः। ततस्तेषु संकल्प: परिग्रह इति युज्यते । तन्मूलाः सर्वे दोषाः । ममेदमिति हि सति संकल्पे संरक्षणादयः संजायन्ते । तत्र च हिंसावश्यंभाविनी। तदर्थमनतं जल्पति । चौयं वा आचरति । मैथने च कर्मणि प्रयतते । तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकाराः ।
8696. एवमुक्तेन प्रकारेण हिंसादिदोषशिनोहिंसादिगुणाहितचेतसः परमप्रयत्नस्या हिंसादीनि प्रतानि यस्य सन्ति सः---
निश्शल्यो व्रती ॥18॥ 8697. शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । शरीरानुप्रवेशि काण्डादिप्रहरणं शल्यमिव शल्यं, यथा तत प्राणिनो बाधाकरं तया शारीरमानसबाधाहेतृत्वात्कर्मोदयविकारः शल्यमित्यपचर्यते । तत् त्रिविधम्-मायाशल्यं निदानशल्यं मिथ्यादर्शनशल्यमिति । माया निकृतिर्वञ्चना। निदानं विषयभोगाकाङ्क्षा । मिथ्यादर्शनमतत्त्वश्रद्धानम् । एतस्मास्त्रिविधाच्छल्यान्निष्क्रान्तो निश्शल्यो वती इत्यच्यते । अत्र चोद्यते-शल्याभावान्निःशल्यो व्रताभिसंबन्धाद व्रती, न निश्शल्यत्वाद व्रती भवितुमर्हति । न हि देवदत्तो दण्डसंबन्धाच्छत्री भवतीति ? अत्रोच्यते-उभविशेषणविशिष्टकोई दोष नहीं है; क्योंकि 'प्रमत्तयोगात्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रवाला होकर प्रमादरहित है उसके मोहका अभाव होनसे मूर्छा नहीं है, अतएव परिग्रहरहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्माके स्वभाव हैं,
लए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता । परन्तु रागादिक तो कमांक उदयसे होते हैं, अत: वे आत्माका स्वभाव न होनेसे हेय हैं इसलिए उनमें होनेवाला संकल्प परिग्रह है यह बात बन जाती है । सब दोष परिग्रहमूलक ही होते हैं। यह मेरा है' इस प्रकारके संकल्पके होनेपर संरक्षण आदिरूप भाव होते हैं। और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्ममें प्रवृत्त होता है । नरकादिकमें जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं।
8696. इस प्रकार उक्त विधिसे जो हिंसादिमें दोषोंका दर्शन करता है, जिसका चित्त अहिंसादि गुणोंमें लगा रहता है और जो अत्यन्त प्रयत्नशील है वह यदि अहिंसादि व्रतोंको पाले तो किस संज्ञाको प्राप्त होता है इसी बातका खुलासा करनेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं
जो शल्यरहित है वह व्रती है ॥18॥
8697. 'शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्' यह शल्य शब्दकी व्युत्पत्ति है । शल्यका अर्थ है पीड़ा देनेवाली वस्तु । जब शरीरमें काँटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीडाकर भाव है वह शल्य शब्दसे लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि शल्य प्राणियोंको बाधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मनसम्बन्धी बाधाका कारण होनेसे कर्मोदयजनित विकारमें भी शल्यका उपचार कर लेते हैं अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं। वह शल्य तीन प्रकारकी है—माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य। माया, निकृति और वंचना अर्थात् ठगनेकी वृत्ति यह माया शल्य है। भोगोंकी लालसा निदान शल्य है और अतत्त्वोंका श्रद्धान मिथ्यादर्शन शल्य है। इन तीन शल्योंसे जो रहित है वही निःशल्य व्रती कहा जाता है। शंका-शल्यके न होनेसे निःशल्य होता है और व्रतोंके धारण करनेसे व्रती होता है । शल्य1. चौर्य चाचरति ता.। 2. एवमुक्तक्रमेण हिंसा- ता.। 3. --प्रहरणं । तच्छल्य मु.। 4. तथा शरीरमु.। 5. -विशिष्टत्वात् मु.।
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