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282] सर्वार्थसिद्धौ
[7123 $ 706तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति । दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् ।
8706. अत्राह, 'निःशल्यो वती' इत्युक्तं तत्र च तृतीयं शल्यं मिथ्यादर्शनम् । ततः सम्यग्दृष्टिना वृतिना' निःशल्येन भवितव्यमित्युक्तम् । तत्सम्यग्दर्शनं किं सापवादं निरपवादमिति । उच्यते-कस्यचिन्मोहनीयावस्थाविशेषात्कदाचिदिमे भवन्त्यपवादाःशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥23॥
8707. निःशंकितत्वादयो व्याख्याताः 'दर्शनविशुद्धिः' इत्यत्र । तत्प्रतिपक्षभूताः शंकादयो वेदितव्याः। अथ प्रशंसासंस्तवयोः को विशेषः ? मनसा मिथ्यादृष्टानचारित्रगुणोद्भावन प्रशंसा, भूताभूतगुणोद्भाववचनं संस्तव इत्ययमनयोर्भेदः । ननु च सम्यग्दर्शनमष्टाङ्गमुक्तं तस्यातिचाररप्यष्टभिर्भवितव्यम् । नैष दोषः; व्रतशीलेषु पंच पंचातिचारा इत्युत्तरत्र विवक्षुणाचार्येण प्रशंसासंस्तवयोरितरानतिचारानन्तर्भाव्य पंचैवातिचारा उक्ताः।
8708. आह, सम्यग्दृष्टेरतिचारा उक्ताः । किमेवं वृतशीलेष्वपि भवन्तीति ? ओमित्युक्त्वा तदतिचारसंख्यानिर्देशार्थमाह
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।।24।।
न हों तो जिससे अपने गुणोंका नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नबमका दोष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है।
8706. यहाँ पर शंकाकार कहता है कि व्रती निःशल्य होता है ऐसा कहा है और वहाँ तीसरी शल्य मिथ्यादर्शन है। इसलिए सम्यग्दृष्टि व्रतीको निःशल्य होना चाहिए यह उसका अभिप्राय है, तो अब यह बतलाइए कि वह सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद होता है ? अब इसका समाधान करते हैं-किसी जीवके मोहनीयकी अवस्था विशेषके कारण ये अपवाद होते हैं
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दृष्टि के पाँच अतिचार हैं ।।23।।
६707. 'दर्शनविशुद्धिः' इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते समय निःशंकितत्व आदिका व्याख्यान किया। ये शंकादिक उनके प्रतिपक्षभूत जानना चाहिए । शंका-प्रशंसा और संस्तवमें क्या अन्तर है ? समाधान-मिथ्यादृष्टिके ज्ञान और चारित्र गुणोंका मनसे उद्भावन करना प्रशंसा है और मिथ्यादृष्टि में जो गुण हैं या जो गुण नहीं हैं इन दोनोंका सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है, इस प्रकार यह दोनोंमें अन्तर है। शंका-सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं, इसलिए उसके अतिचार भी आठ ही होने चाहिए। समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आगे आचार्य व्रतों और शीलोंके पाँच-पाँच अतिचार कहनेवाले हैं, इसलिए अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव इन दो अतिचारोंमें शेष अतिचारोंका अन्तर्भाव करके सम्यग्दृष्टिके पाँच ही अतिचार कहे हैं।
8708. सम्यग्दृष्टिके अतिचार कहे, क्या इसी प्रकार व्रत और शीलोंके भी अतिचार होते हैं ? हाँ, यह कह कर अब उन अतिचारोंको संख्याका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
व्रतों और शीलोंमें पाँच पाँच अतिचार हैं जो क्रमसे इस प्रकार हैं ॥24॥ 1 तिना भवि-- आ., दि., 1, दि. 2 ।
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