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-71168 693] सप्तमोऽध्यायः
[273 कुतः । 'अदत्त' ग्रहणसामर्थ्यात् । एवमपि भिक्षोामनगरादिषु भ्रमणकाले रथ्याद्वारादिप्रवेशाददत्तादानं प्राप्नोति ? नैष दोषः; सामान्येन मुक्तत्वात् । तथाहि----अयं भिक्षुः पिहितद्वारादिषु न प्रविशति अमुक्तत्वात् । अथवा 'प्रमत्तयोगात्' इत्यनुवर्तते । प्रमत्तयोगाददत्तादानं यत् तत्स्तेयमित्युच्यते । न च रथ्यादि प्रविशतः प्रमत्तयोगोऽस्ति । तेनैतदुक्तं भवति, यत्र संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति बाह्यवस्तुनो' ग्रहणे चाग्रहणे च। 8692. अथ चतुर्थमब्रह्म किलक्षणमित्यत्रोच्यते
मैथुनमब्रह्म ॥16॥ 8693. स्त्रीपुसयोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य कर्म मैथुनमित्युच्यते । न सर्व कर्म । कुतः ? लोके शास्त्रे च तथा प्रसिद्धः । लोके तावदागोपालादिप्रसिद्ध स्त्रीपुस-योः रागपरिणामनिमित्तं चेष्टितं मैथुनमिति । शास्त्रेऽपि "अश्ववृष भयोमैथुनेच्छायाम्" इत्येवमादिषु तदेव गृह्यते । अपि च 'प्रमत्तयोगात्' इत्यनुवर्तते तेन स्त्रीपुंसमिथुनविषयं रतिसुखार्थ चेष्टितं मैथुनमिति गृह्यते, न सर्वम् । अहिंसादयो गुणा नोकर्मका ग्रहण करना भी स्तेय ठहरता है, क्योंकि ये किसीके द्वारा दिये नहीं जाते ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जहाँ देना और लेना सम्भव है वहीं स्तेयका व्यवहार होता है । शंका-यह अर्थ किस शब्दसे फलित होता है ? समाधान-सूत्रमें जो 'अदत्त' पदका ग्रहण किया है उससे ज्ञात होता है कि जहाँ देना लेना सम्भव है वहीं स्तेयका व्यवहार होता है। शंका-स्तेयका उक्त अर्थ करने पर भी भिक्षुके ग्राम नगरादिकमें भ्रमण करते समय गली, कूचाके दरवाजा आदिमें प्रवेश करने पर बिना दो हुई वस्तुका ग्रहण प्राप्त होता है ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि वे गलो, कूचाके दरवाजा आदि सबके लिए खुले हैं । यह भिक्षु जिनमें किवाड़ आदि लगे हैं उन दरवाजा आदिमें प्रवेश नहीं करता, क्योंकि वे सबके लिए खुले नहीं हैं । अथवा, 'प्रमत्तयोगात्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है जिससे यह अर्थ होता है कि प्रमत्तके योगसे बिना दो हुई वस्तुका ग्रहण करना स्तेय है । गली कूचा आदिमें प्रवेश करनेवाले भिक्षुके प्रमत्तयोग तो है नहीं, इसलिए वैसा करते हुए स्तेयका दोष नहीं लगता। इस सब कथनका यह अभिप्राय है कि बाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय किन्तु जहाँ संक्लेशरूप परिणामके साथ प्रवृत्ति होती है वहाँ स्तेय है।
8692. अब चौथा जो अब्रह्म है उसका क्या लक्षण है यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
मैथुन अब्रह्म है॥16॥
8693. चारित्रमोहनीयका उदय होनेपर राग परिणामसे युक्त स्त्री और पुरुषके जो एक दूसरेको स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मिथुन कहलाता है और इसका कार्य मैथुन कहा जाता है । सब कार्य मैथुन नहीं कहलाता क्योंकि लोक में और शास्त्रमें इसी अर्थ में मैथुन शब्दकी प्रसिद्धि है । लोकमें बाल-गोपाल आदि तक यह प्रसिद्ध है कि स्त्री-पुरुषकी रागपरिणामके निमित्तसे होनेवाली चेष्टा मैथुन है। शास्त्रमें भी 'घोड़ा और बैलकी मैथुनेच्छा होनेपर' इत्यादि वाक्योंमें यही अर्थ लिया जाता है। दूसरे 'प्रमत्तयोगात्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिए रतिजन्य सुखके लिए स्त्री-पुरुषकी मिथुनविषयक जो चेष्टा होती है वही मैथुनरूपसे ग्रहण किया 1. -वस्तुनो ग्रहणे च आ.। 2.-पुसराग- मु.। 3. पा. सू. 711151 इत्यत्र वार्तिकम् । 4.-दयो पर्मा य- मु.।
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