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---7113 $ 687] सप्तमोऽध्यायः
[271 कायस्वभावचिन्तनाद्विषयरागनिवृत्तेर्वैराग्यमुपजायते । इति जगत्कायस्वभावौ भावयितव्यो।
8686. अत्राह; उक्तं भवता हिंसादिनिवृत्तिव्रतमिति, तत्र न जानीमः के हिंसादयः क्रियाविशेषा इत्यत्रोच्यते । युगपद्वक्तुमशक्यत्वात्तल्लक्षणनिर्देशस्य क्रमप्रसंगे यासावादी चोदिता सैव तावदुच्यते
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥13॥ 8 687. प्रमादः सकषायत्वं तद्वानात्मपरिणामः प्रमत्तः। प्रमत्तस्य योगः प्रमत्तयोगः, तस्मात्प्रमत्तयोगात् इन्द्रियादयो दशप्राणास्तेषां यथासंभवं व्यपरोपणं वियोगकरणं हिसेत्यभिधीयते । सा प्राणिनो दुःखहेतुत्वादधर्महेतुः । 'प्रमत्तयोगात्' इति विशेषणं केवलं प्राणव्यपरोपणं नाधर्मायेति ज्ञापनार्थम् । उक्तं च--
वियोजयति चासुभिर्न च बघेन संयुज्यते ॥” इति ।। उक्तं च
"उच्चालिदम्हि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमट्ठाणे । आवादे [धे] ज्ज कुलिंगो मरेज्ज तज्जोगमासेज्ज ।। ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिदो समए।
मुच्छापरिग्गहो त्ति य अज्झप्पपमाणदो भणिदो ॥" ननु च प्राणव्यपरोपणाभावेऽपि प्रमत्तयोगमात्रादेव हिंसेष्यते । उक्तं चस्वभावका चिन्तन करनेसे विषयोंसे आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है । अत: जगत् और कायके स्वभावकी भावना करनी चाहिए।
8686. यहाँ पर शंकाकार कहता है कि आपने यह तो बतलाया कि हिंसादिकसे निवृत्त होना व्रत है । परन्तु वहाँ यह न जान सके कि हिंसादिक क्रियाविशेष क्या हैं ? इसलिए यहाँ कहते हैं । तथापि उन सबका एक साथ कथन करना अशक्य है, किन्तु उनका लक्षण क्रमसे ही कहा जा सकता है, अत: प्रारम्भमें जिसका उल्लेख किया है उसीका स्वरूप बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
प्रमत्तयोगसे प्राणोंका वध करना हिंसा है ॥13॥
8687. प्रमाद कषाय सहित अवस्थाको कहते हैं और इस प्रमादसे युक्त जो आत्माका परिणाम होता है वह प्रमत्त कहलाता है । तथा प्रमत्तका योग प्रमत्तयोग है। इसके सम्बन्धसे इन्द्रियादि दस प्राणोंका यथासम्भव व्यपरोपण अर्थात् वियोग करना हिंसा कही जाती है। इससे
को दुःख होता है, इसलिए वह अधर्मका कारण है। केवल प्राणोंका वियोग करनेसे अधर्म नहीं होता है यह बतलानेके लिए सूत्रमें 'प्रमत्तयोगसे' यह पद दिया है। कहा भी है
'यह प्राणी दूसरेको प्राणोंसे वियुक्त करता है तो भी उसे हिंसा नहीं लगती।' और भी कहा है
ईर्यासमितिसे युक्त साधुके अपने पैरके उठाने पर चलनेके स्थानमें यदि कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैरसे दब जाय और उसके सम्बन्धसे मर जाय तो भी उस निमित्तसे थोड़ा भी बन्ध आगममें नहीं कहा है, क्योंकि जैसे अध्यात्म दृष्टिसे मूर्छाको ही परिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणामको हिंसा कहा है।'
शंका-प्राणोंका विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोंगसे ही हिंसा कही जाती है । कहा भी है
1. भगवता मु., ता., ना.। 2. सिद्ध. द्वा. 3,16। 3. प्रवचन. क्षे,3,16। 4. प्रवचन. क्षे.3,171.
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