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-7110 6 682] सप्तमोऽध्यायः
[269 विरतिरात्महिता । तथा परिग्रहवान् शकुनिरिव गृहीतमांसखण्डोऽन्येषां तदथिनां पतत्त्रिणामिहैव तकरादीनामभिभवनीयो भवति तदर्जनरक्षणप्रक्षयकृतांश्च दोषान् बहूनवाप्नोति न चास्य तृप्तिर्भवति इन्धनैरिवाग्नेः लोभाभिभूतत्वाच्च कार्याकार्यानपेक्षो भवति प्रेत्य चाशुभां गतिमास्कन्दते लुब्धोऽयमिति गहितश्च भवतीति तद्विरमणं श्रेयः । एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम्। $ 680. हिंसादिषु भावनान्तरप्रतिपादनार्थमाह- .
दुःखमेव वा ॥10॥ 8681. हिंसादयो दुःखमेवेति भावयितव्याः। कथं हिंसादयो दुःखम् ? दुःखकारणत्वात् । यथा “अन्नं वै प्राणा:' इति । कारणस्य कारणत्वाद्वा । यथा “धनं प्राणा:” इति । धनकारणमन्नपानकारणाः प्राणा इति। तथा हिंसादयोऽसवेद्यकर्मकारणम् । असद्यकर्म च दुःख . कारणमिति दुःखकारणे दुःखकारणकारणे वा दुःखोपचारः । तदेते' दुःखमेवेति भावनं परात्मसाक्षिकमवगन्तव्यम् । ननु च तत्सर्वं न दुःखमेव; विषयरतिसुखसद्भावात् ? 'न तत्सुखम् । वेदनाप्रतीकारत्वात्कच्छकण्डूयनवत् ।।
8682. पुनरपि भावनान्तरमाहलोकमें उसको चाहनेवाले चोर आदिके द्वारा पराभूत होता है । तथा उसके अर्जन, रक्षण और नाशसे होनेवाले अनेक दोषोंको प्राप्त होता है। जैसे ईधनसे अग्निकी तृप्ति नहीं होती वैसे ही इसकी कितने ही परिग्रहसे कभी भी तृप्ति नहीं होती। यह लोभातिरेकके कारण कार्य और अकार्यका विवेक नहीं करता, परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है । तथा यह लोभी है इस प्रकारसे इसका तिरस्कार भी होता है, इसलिए परिग्रहका त्याग श्रेयस्कर है । इस प्रकार हिंसा आदि दोषोंमें अपाय और अवद्यके दर्शनको भावना करनी चाहिए।
8680. अब हिंसा आदि दोषोंमें दूसरी भावनाका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
अथवा हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए ॥10॥
8681. हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसा चिन्तन करना चाहिए। शंका-हिंसादिक दु:ख कैसे हैं ? समाधान-दु:खके कारण होनेसे । यथा-'अन्न ही प्राण हैं।' अन्न प्राणधारणका कारण है पर कारणमें कार्यका उपचार करके जिस प्रकार अन्नको ही प्राण कहते हैं । या कारणका कारण होनेसे हिंसादिक दुःख हैं । यथा-'धन हो प्राण हैं ।' यहाँ अन्नपानका कारण धन है और प्राणका कारण अन्नपान है, इसलिए जिस प्रकार धनको प्राण कहते हैं उसी प्रकार हिंसादिक असाता वेदनीय कर्मके कारण हैं और असाता वेदनीय दुःखका कारण है, इसलिए दुःखके कारण या दुःखके कारणके कारण हिंसादिकमें दुःखका उपचार है । ये हिंसादिक दुःख ही हैं इस प्रकार अपनी और दूसरोंकी साक्षीपूर्वक भावना करनी चाहिए। शंका-ये हिंसादिक सबके सब केवल दुःख ही हैं यह बात नहीं है, क्योंकि विषयोंके सेवनमें सुख उपलब्ध होता है ? समाधान-विषयोंके सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किन्तु दादको खुजलानेके समान केवल वेदनाका प्रतिकारमात्र है।
8682. और भी अन्य भावना करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं1. तदेते दुःखमेवेति भावनं परमात्ससा- आ.। तदेतत् दुःखमेवेति भावनं परात्मसा-- मु.। तदेते दुःखमेवेति भावनं परत्रात्मसा-- ता.। 2. ननु च सर्व दुःखमेव ता.। 3. भावनार्थमाह आ, वि. 1, दि. 2 ।
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